आरक्षण


आजादी के उपरान्त देश जहाँ एक ओर आन्तरिक एवं वाह्य समस्याओ से संघर्ष कर रहा था वही दूसरी ओर उसके सृजन व विकास की बुनियाद पर नये सिरे से कार्य करना भी नितान्त आवश्यक था। इन सभी कार्यों के सम्पादन हेतु एक विस्तृत नीति का निर्धारण भी किया जाना उतना ही महत्वपूर्ण था जितना कि राष्ट्र निर्माण व विकास। जिसके फलस्वरूप एक ऐतिहासिक लिखित दस्तावेज भारतीय संविधान के रूप सन् 1950 में हम समस्त भारतवासियों को प्राप्त हुआ। जिसमें भारत में रहने वाले सभी वर्गों व धर्मों के लोगो के लिए समान रूप से व्यवहार करते व उनके मजहब के प्रति आदर भाव दर्शाते हुए नीति निर्धारण किया गया जो एक तरह से अद्भुत एवं सराहनीय ही रहा। भारत के सम्पूर्ण क्षेत्र में गुलामी के दौर से उबरने के उपरान्त एक बड़ी संख्या में सर्वहारा वर्ग मौजूद था जिसमें बहुलता से अनुसूचित जन जातियां एवं आदिवासी कबिलाई जातियां थी जो जीवन की मुख्य आवश्यकताओं के लिए युद्धस्तर पर संघर्षरत थी। जिन पर तत्कालीन शासन ने गम्भीरता से विचार करते हुए उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने हेतु 22.5 फीसदी आरक्षण की सुविधा प्रदत्त की। जो उस समय की महती आवश्यकता थी साथ ही एक समयावधि तक के लिए सुनिश्चित किया। वर्तमान परिस्थितियों में जिसे गलत ठहराना कदापि उचित प्रतीत नही होता। हाँ आरक्षण की सुविधा के स्थान पर यदि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने हेतु उन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति पर आरक्षण देने के बजाय ज्यादा बल दिया गया होता तो आज जो विसंगतियां आरक्षण के द्वारा उत्पन्न हो रही है शायद वह आज इस तरह हम लोगों के सामने नही होती। यह विसंगतियां अचानक आज हमारे सामने नही आयी है इसके पहले छिटपुट में इस तरह की त्रुटियां उत्पन्न हुयी होगी जिन पर तत्कालीन सरकारो द्वारा गम्भीरता से संज्ञान में लेकर उसका सुधार न करने की भारी भूल तो अवश्य की है। जिसके चलते आरक्षण जो वरदान के रूप में सामने आया था वह वर्तमान में राष्ट्र व समाज के लिए गुड़ भरा हंसिया बन गया जो न निगलते बनता है और न ही उगलते। विसंगतियों का सुधार तो शासन द्वारा दूर की कौड़ी ही रही स्वार्थपर की राजनीति के परिपेक्ष में कोढ़ पर खाज के रूप में सन् 1993 में तत्कालीन सरकार ने 27 फीसदी आरक्षण का लाभ पिछड़े वर्ग को दिये जाने का प्राविधान के रूप में देश को एक और उपहार दे दिया। बात यह नहीं है कि निम्न या पिछड़े वर्ग को उसी स्थिति परिस्थिति में जीवन यापन करते रहने छोड़ दिया जाये उनका किसी भी तरह से ध्यान न दिया जाये। ऐसी मंशा तो किसी की नही रही होगी लेकिन किसी प्रतिभा को दरकिनार करके यह कार्य हो तो किसी भी मायने में राष्ट्र व समाज के लिए हितकारी नही होगे। इस प्रकरण में हमें यह महसूस होता है कि निम्न वर्ग व पिछड़े वर्ग को आरक्षण के बजाय उन्हें वह प्लेटफार्म निष्पक्षता से मुहैया कराया जाये जिससे वह आत्मनिर्भर बनकर किसी भी प्रतियोगिता में अपने बुद्विकौशल से आगे आये और मुख्यधारा से जुड़कर अपने स्व विकास के साथ - साथ राष्ट्र व समाज के विकास व उत्थान में अपनी भागीदारी दे। अफसोस की बात यह है कि 50 फीसदी या किन्ही किन्ही राज्यों में इससे भी अधिक प्रतिशत में निम्न व पिछड़े वर्ग को आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है लेकिन उक्त वर्गों में स्थिति जस की तस ही दिख रही है वहाँ भी सबल हो चुके उस वर्ग के अभिजात्य वर्ग ने अपना कब्जा जमा लिया है और उसका भरपूर लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी उठाने में तल्लीन हैं। इसके अलावा शेष निम्न व पिछड़ा वर्ग आज भी रोटी कपडा व मकान जैसी मूलभूत जरुरतों के लिए संघर्ष कर रहा है। यहाँ भी वही प्रश्न खडा हो जाता है कि उक्त वर्ग को सर्वप्रथम शिक्षित सुयोग्य व आत्मनिर्भर बनाने हेतु हर तरीके की मदद एवं सुविधाएं दी जानी चाहिए जिससे वो अपनी बुद्धि कौशल से बिना आरक्षण के सहारे आगे बढ़कर अपना हक प्राप्त कर सकें और देश की मुख्य धारा से जुड़कर सकारात्मक सहयोग कर सकें। आरक्षण का जो लाभ एक तयशुदा अवधि के लिए हमारे संविधान मे उल्लिखित है, को सभी राजनैतिक दलों या उनकी सहभागिता से निर्मित सरकारों ने बिना गुण-दोष का विवेचन या बिना चिन्तन किए उसे ज्यों का त्यों आगे बढ़ाते रहे और जिम्मेदारी से अपने को बचाते हुए एक दूसरे के सिर पर दोश मढ़ते रहे। इससे स्पष्ट होता है कि उक्त सभी दल देश व समाज के प्रति कितने सजग एवं संवेदनशील हैं?ऐसी परिस्थितियों से एक नई समस्या का उदय हुआ कि आरक्षण का लाभान्वित वर्ग पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए अपना जन्म सिद्ध छ अधिकार मानने व समझने लगा। निम्न व पिछडे वर्ग के अभिजात्य वर्ग ने आरक्षण पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया जिससे संबन्धित शेष वर्ग के लोग आरक्षण के लाभ से वंचित रह गए जिससे व्यवस्था व उक्त लाभान्वित वर्ग के प्रति नफरत व दवेश की भावना दिलों में पलने लगी। इस तरह आरक्षण को लेकर पक्ष-विपक्ष के अलावा एक और धडा असंतुष्ट वर्ग के रुप में उभरकर सामने आया जो समस्या कम करने के बजाय मुसीबत बढाने का कारक और बना। 50 फीसदी या उससे अधिक आरक्षण के लागू होने से सबसे अधिक प्रभावित प्रतिभावान सुयोग्य पात्र हुए प्रतियोगिता या किसी कम्पटीशन का अच्छी मेरिट से क्वालीफाई करने के बावजूद उनका चयन न हो पाने की पीडा एक तो कम नही होती उस पर यह कि कम अंकों से क्वालीफाइड आरक्षित वर्ग का चयन उसके स्थान पर सरलता से हो जाता है तब उस प्रतिभा की पीडा अत्यन्त घनीभूत हो जाती है। ऐसे में कुंठा व आक्रोश का माहौल देश व समाज मे तेजी से बनने व फैलने लगता है व्यवस्था के प्रति एवं देश व समाज के प्रति विद्रोह की भावनाएं सिर उठाने लगती हैं जिस कारण अराजकता व उन्माद के माहौल से शान्ति व स्थिरता के भंग होने का भयावह संकट उत्पन्न हो सकता है। हमारे देश व समाज की स्थितियाँ लगभग इसी प्रकार की हैं। सत्य, प्रेम, न्याय, आपसी भाईचारा, सौहार्द एवं सहयोग के स्थान पर लोगों में स्वार्थ, घृणा, भ्रष्टाचार, हिंसा, आतंक एवं संर्कीणता जैसी घातक जहरीली मानसिकता पनपने लगी जो देश व समाज के लिए किस तरह से हितकारी होगी, यह हमारे भविष्य के लिए गम्भीर चुनौती युक्त समस्या है जो आरक्षण को देश व समाज में वरदान की श्रेणी में इतर एक भयावह अभिशाप के रुप में परिलक्षित करती है अभिशाप के रुप में परिलक्षित करती है प्रतिभाएं जिस तरह से आरक्षण की चपेट में असमय कुंठाग्रस्त होकर काल कवलित हो रहीं हैं या पलायन कर रहीं हैं जो भविष्य में देश व समाज के लिए विघटनकारी ही साबित होंगी।


  आरक्षण को लेकर हमारा सम्पूर्ण समाज वर्तमान में खेमों में बँटा बिखरा नजर आ पिछड़े रहा है। कोई अपना अधिकार कम करना या छोंडना नहीं चाहता या कोई अपना हक मांगने अथवा मनवाने में तुला है और कोई हक न दिए जाने हेतु अपनी बगावती आवाज बुलन्द कर रहा है। इसके लिए हर वर्ग अपनी सारी शक्ति व सामर्थ्य से शक्ति प्रदर्शन करके साबित करने में जुटा हुआ है। जिसका उदाहरण हाल में हुई घटनाएं व उग्र प्रदर्शन आदि हैं। सबसे मुख्य बात यह है कि जब देश व समाज का उत्तरदायित्व उपर्युक्त पात्र के पास न होकर जुगाड या शार्टकट के जरिए चयनित कंधों पर तो क्या परिणाम होगा यह लगभग सभी के संज्ञान मे है लेकिन अफसोस सभी राजनैतिक दल एवं जिम्मेदार संस्थाएं मात्र मूक दर्शक बनकर या तो तमाशा देख रहीं या तो भरपूर अनुचित लाभ उठा रहीं हैं। आरक्षण, पल्लवित होती प्रतिभाओं के लिए वर्तमान में जानलेवा साबित हो रहा है। आखिरकार शोषण व दमनकारी नीतियों को कोई कब तक सहन करेगा ?शासन के लिए ये भी एक विचारणीय गम्भीर विषय है । प्रतिभाओं की दुर्दशा और उनका हुबहू दर्द उकेरने के लिए न तो मेरे पास वो शब्दसामर्थ्य है और न ही लेखनी मे वह क्षमता। मेरे पास तो इनके प्रति मात्र यही शब्द हैं कि :“हीरे जैसे जगमग करते पत्थर जैसे भारी लोग हालात के कारण राहों में कंकर की तरह बिखरे हैं।"- अज्ञात अगर पारदर्शिता से देखा व समझा जाए तो आरक्षण से उपजे विद्वेष व असंतोष के पीछे हमारी स्वार्थपरता व हमारे विभिन्न राजनैतिक संगठन हैं जो अपनी कृत्सित महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कभी आरक्षण के पक्ष में कभी विपक्ष में खड़े हो जाते हैं और जब वक्त आता है तो बिना किसी योजना के या बिना किसी समुचित समीक्षा के जिम्मेदारी से बचने के लिए आरक्षण की समयावधि ऑखे बन्दकर बढाकर अपना पल्लू झाड़ लेते हैं। बिना हमारे संविधान की मूल मंशा जाने या नजर अंदाज करते हुए अपना उल्लू सीधा करने में व्यस्त हैं कोई भी बिल्ली के गले में घंटी बांधने को तैयार नहीं होता है। आखिरकार ये सब कब तक यूं ही चलता रहेगा और वंशानुगत एवं लैमार्कवाद का कब तक यूं ही पालन पोषण होता रहेगा? निम्न व पिछड़े वर्ग के वास्तविक एवं उनकी आत्मनिर्भरता हेतु कोई निष्पक्षता से कब न्याय करेगा?इन वर्गों को अपने ही अभिजात्य वर्ग के चंगुल से क्या कोई बचा सकेगा? प्रतिभाओं की पात्रता के अनुसार क्या उनको उपयुक्त स्थान कभी मिल पाएगा और क्या कोई हाथ इनके साथ न्याय करने के लिए उठेगा ?एवं हमारे समस्त सच्चाई, ईमानदारी निष्ठा व निष्पक्षता से संविधान के मंतव्य के अनुरुप नीति निर्धारण व कार्य करन में हम कब तक सक्षम हो सकेंगे? इन सारे सवालों का उत्तर खोजते–खोजते हम सब कहीं गृह कलह से आगे चलकर विघटन व विनाश के उस पायदान तक पहुँच न जाएं, भविष्य में जहां से वापस आना ही सम्भव न होआरक्षण जो कल तक वरदान रहा है आज वर्तमान में राष्ट्र व समाज के लिए एक अभिशाप के रूप में गले की हड्डी साबित हो रहा है। ऐसी दोहरी व्यवस्था किसी भी देश व समाज के लिए कतई उचित नही है। सभी वर्गों को निष्पक्षता व ईमानदारी से उनका हक समुचित ढंग से उनकी योग्यतानुसार मिलना चाहिए और जो सक्षम या आत्मनिर्भर नही है उन्हें हर संभव मदद मिलनी चाहिए जिससे हमारा समाज व राष्ट्र सुदृढ व व्यवस्थित होकर अपेक्षित विकास कर सकेगा और इस विकास व सृजन का भागीदार देश का हर नागरिक होगा लेकिन इसके लिए देश के सभी राजनैतिक दलों को भी दलगत, हार-जीत एवं स्वार्थपरता की सोच से ऊपर उठकर राष्ट्र हित में चिंतन व कार्य करना होगा और तब ये वर्तमान का अभिशापित आरक्षण निस्संदेह फिर से वरदान ही साबित हो सकता हैभिन्न-भिन्न समुदाय,जातियो व मजहबों के लोग आपस मे एक दूसरे के पूरक बनकर एक छत के नीचे आपसी भाईचारे के साथ शान्तिपूर्वक रहकर देश के सर्वांगीण विकास का परिचायक बनेंगे तभी हम गर्व से यह कहने में सक्षम होंगे कि हम अनेक होते हुए भी एक हैं जो देश की आत्मा है।


                                                                                                                                      मुत्युंजय पाण्डेय


                                                                                                                                                                        ब्यूरोचीफ फतेहपुर


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