निर्भया हमने ही बनाया
भारत में यदि किसी का सबसे ज्यादा शोषण हुआ है तो वो स्त्री है, फिर वो चाहे किसी भी जाती या धर्म की हो। पुरुष ने हमेशा उसको अपनी निजी सम्पति समझा, इस लिए उस पर समय समय पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध लगाए। पर्दा प्रथा, पराये पुरुष से बात न करना, घर की चार दिवारी में रहना , पिता की सम्पत्ति पर अधिकार न होना, स्त्री पराया धन, आदि ऐसे नियम बनाये ताकि पुरुष हमेशा स्त्री का शोषण कर सके। एक बालिका को अपने पिता के निर्देशों पर जीना, युवा अवस्था में भाई के, विवाह उपरान्त अपने पति के और प्रौढ़ अवस्था में अपने बेटे के, यानि पुरुष ने उसे हमेशा उसकी दासता से मुक्त न होने पाए। हिन्दू धर्म में स्त्री के बारे में कहा गया है कि- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र दे वता, यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलारू क्रिया। अर्थात जहां पर स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता रमते हैं, जहाँ उनकी पूजा नहीं होती, वहाँ सब काम निष्फल होते हैं। परन्तु क्या कारण है कि जहाँ स्त्रियों को पूजनीय समझा जाता था उसके बिना हर कार्य को निष्फल समझा जाता वहीं स्त्री की इतनी दुर्दशा हो गई। प्राचीन काल की नारी की स्थिति से तुलना करने पर हमें दिखाई देता है कि आज की नारी घोर पतन की स्थिति में पहुँच गयी है, राजनीति में उनके योगदान के सम्बन्ध में भले ही कुछ संदेह हो, परन्तु बौद्धिक तथा सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने बहुत ही ऊँचा स्थानष प्राप्त कर रखा था इसमें कोई संदेह नहीं। अथर्ववेद में आये इस प्रंसग से कि ब्रह्मचर्यकाल पूरा करने के उपरान्त कन्या विवाह के योग्य मानी जाये, यह स्पष्ट होता है कि उस काल की नारी उपनयन की भी अधिकारिणी थी। श्रोतसूत्र से हमें विदित होता है कि स्त्रियों को वेदाध्ययन कराया जाता था और वे वेद-मन्त्रों का उच्चारण कर सकती थी। और सबसे बड़ा प्रमाण तो पाणिनि का अष्टाध्यायी है, जिससे सिद्ध होता है कि स्त्रियाँ गुरुकुल में रहकर वेदों की विभिन्न शाखाओं का अध्ययन करती थी तथा मीमांसा में पारंगत होती थी। पंतजलि का ‘महाभाष्य' हमें बताता है कि स्त्रियाँ उस समय आचार्य भी थी और कन्याओं को वेद पढ़ाती थी, पुरुषों के साथ धर्म, दर्शन, अभ्यास आदि गूढ़ विषयों पर स्त्रियों के शास्त्राथों के उदाहरण भी कम नहीं है, जनक और सुलभा, याज्ञवल्क्य और गार्गी, याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी तथा शंकराचार्य और विद्धाधरी के शास्त्रार्थ यह दर्शाते है कि मनुस्मृति के पहले के युग में स्त्रियाँ ज्ञान व शिक्षा के क्षेत्र में, उच्चतम शिखर पर पहुँच सकती थी। भारतीय इतिहास इस बात को निर्विवाद रूप से सिद्ध कर देता है कि एक युग ऐसा था, जिसमे स्त्रियाँ अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखी जाती थी। डॉ काशी प्रसाद जायसवाल की पुस्तक 'हिन्दू राजतंत्र के अनुसार राजाओं के राज्याभिषेक में प्रमुख भाग लेने वाले रत्नों में रानी भी एक होती थी और जिस प्रकार राजा अन्य रत्नों का अर्चन वंदन करता था, उसी प्रकार रानी का भी करता था। यही नहीं, अपनी प्रधान रानी के अतिरिक्त अपनी नीची जातियों की पत्नियों की भी वह सम्मान पूजा करता था। इसी प्रकार अभिषेक के पश्चात राजा श्रेणियों की प्रमुख महिला का भी वंदन करता था। विश्व के इतिहास की दृष्टी से भी नारियों की उपर्युक्त स्थिति अत्यंत गौरवपूर्ण थी। इस स्थिति में उनके पतन के लिए कौन दोषी ठहराया जा सकता है ।
रीतिकाव्य में नारी साहित्य संस्कृति का प्रधान वाहक होता है। समाज के उत्थान–पतन, हास-वृद्धि, स्थिति, परिस्थिति का प्रतिबिम्ब ही साहित्य होता है, सामाजिक रुचियों व प्रवृत्तियों का प्रधान निरंतर काव्य अथवा साहित्य पर पड़ता है। अतः किसी भी देश के सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक आदि परिस्थितियों को अभिव्यक्त करने का सच्चा माध्यम होता है, भारतीयसमाज में नारी के स्थान की चर्चा करें तो उसकी स्थिति में काफी अस्थिरता दिखाई पड़ती है, वैदिक काल आदि में नारी को उचित सम्मान मिला है तो मध्यकाल तक आते-आते उसकी स्थिति में भारी गिरावट आई है, भारतीय संस्कृति में नारी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, उसकी कल्पना आदिशक्ति के रूप में की गई। सृष्टि की नियामक शक्ति के रूप में नारी की प्रतिष्ठा हुई, 'यत्र नारयस्तू पूज्यते, तत्र रम्यन्ते देवता की परिकल्पना भारतीय संस्कृति में ही विद्यमान है। वैदिक काव्य में स्त्रियों को व्यापक अधिकार प्राप्त थे। उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी, उन्हें पुरुषों की भांति उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, विश्ववरा, अपाला, लोपामुद्रा आदि अनेक विदुषी नारियों का नाम आज भी सम्मानपूर्वक लिया जाता है। लेकिन समय व सभ्यता के विकास के साथ ही उनकी स्थिति में हास होने लगा था। उसके अधिकारों में पहले की अपेक्षा भारी कमी आयी, उसकी स्वतंत्रता पुरुष के अधीन थी, अब वह पुरुष की संपत्ति मानी जाने लगी। मध्यकाल तक आते-आते नारी की स्थिति में भारी गिरावट आई। वस्तुतः मध्काल को नारी. -पतन का चरम युग माना जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। सभ्यता के विकास के साथ-साथ जिस दबारी सामंती संस्कृति का विकास हुआ उसमें लौकिक प्रवृत्तियों का स्थान बढ़ गया। इसमें कलापूर्ण विलासिता को फलने फूलने का पूरा मौका मिला, राजनीतिक उथल-पुथल ने पूरे दृश्य को बदल दिया था, मध्ययुग का समाज सामंतवादी पद्धति पर आधारित था, जिसमें सम्राट शीर्ष पर था, जिसके बाद उच्च वर्ग के अंतर्गत राजा अधिकारी व सामंत थे, जिन्हें समाज में विशेष अधिकार व स म न प्र I . त पूरे देश में छोटे-छोटे सामंतों नजब्दारों व अमीरों का बाहुल्य होता गया, जैसे जैसे इन सामंतों व मनसबदारों में विलासिता बढ़ती गयी वैसे वैसे जनता से इनका पार्थक्य बढ़ता गया, इन आमिर उमरा वर्ग को हर तरह की सुख सुविधाएँ प्राप्त थीं। अतः यह अत्यंत विलासपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे, अपने धन और साधनों का उपयोग वे विलासिता, असयम, शान शौकत और ठाट-बाट में करते थे। उस समय उनकी विलासिता की भावना दुर्थ्य व अद्वितीय थी। इन सारी परिस्थितियों का प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा। अब तो कवि भी अपने आश्रयदाताओं की विलासिता थी, कला अब वासनापूर्ति का साधन बन चुकी थी और नारी उस साधना को पूरी करने का एक माध्यम। नारी अब एक चेतन सजीव विलास की सामग्री बन बैठी थी, अपनी वासना पूर्ति हेतु पुरुष ने उसे अपने अंतःपुर की चारदीवारी में कैद कर दिया था। बाह्य शरीर का अत्यधिक महत्त्व दिए जाने के कारण नारी की स्थिति दिन-पर-दिन दयनीय होती जा रही थी। वह विलयों का एक उपकरण मात्र बन गई थी। हिंदी साहित्य के इतिहास में नारी विषयक दृष्टिकोण को लक्षित करें तो उसकी स्थिति काफी सम्मानजनक नहीं दिखाई देती, हिंदी का आदिकाव्य वीरगाथाओं व धार्मिक उपदेशों से भरा पड़ा है, इन काव्यों में भी नारी का कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व उभर कर नहीं आया है। वीरगाथाओं में राजाओं के शौर्य का वर्णन है। यह वीरता ज्यादातर राजकुमारियों के अपहरण व उसके बाद होने वाले युद्धों में दिखाई पड़ती है। उस समय घोड़ा की वीरता, ‘जाकी बिटिया सुन्दर देखी ताहि पै जाइ धरे हथियार पर अवलंबित थी। रासो काव्य में स्त्री को भोग की ही वस्तु माना गया है। इस काल में भी नारियों के प्रति उदार दृष्टिकोण नहीं रखते। सिद्ध कवि पञ्च मंकार की साधना में नारी शरीर को एक वस्तु मानते है तो नाथ कवि नारी को मुक्ति पथ की बाधा मानकर उससे दूर रहने का उपदेश देते हैं। इसके अतिरिक्त नारी सौन्दर्य का वर्णन करते हुए भी आदिकालीन कवियों ने बहुत ही स्वस्थ मनोवृत्ति का परिचय नहीं दिया है। अधिकांश कवि नारी के नखशिख सौन्दर्य वर्णन में उसके बाह्य रूप तक आकर ही ठहर गए। पुरुष के ऊपर अवलंबित दिखाई देती है, कुल मिलाकर इस युग में नारी का प्रेयसी व पत्नी रूप ही चित्रित हुआ है, उसके अन्य रूपों की उपेक्षा ही की गई है, तत्कालीन परिस्थितियों जैसे विदेशी आक्रमणों व भोगवादी दृष्टि के कारण नारी को उचित सम्मान नहीं प्राप्त हुआ है। भक्तिकाल में भक्ति की विभिन्न धाराएँ प्रचलन में रहीं। हर धारा में नारी के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है, इस काल के काव्य में नारी मुख्यतः दो रूपों में अभिव्यक्त हुई, एक ओर तो वह सामान्य नारी के रूप में उपेक्षा की पात्र बनी तो दूसरी तरफ आराध्य देवताओं की भार्या व उद्भवस्थिति कारिणी के रूप में चित्रित की गई। भक्तिकाल की संतमार्गी धारा ने नारी को साधना मार्ग में बाधक मानते हुए उसकी परछाई से भी दूर रहने का उपदेश दिया है। नारी की झाई परत अँधा होत भुजंग। एक तरफ वह नारी के पतिव्रता रूप कि वंदना करते हैं तो दूसरी तरफ कामिनी रूप की आलोचना। सामाजिक स्तर पर नारी को अवमानना की दृष्टि से देखते हैं। और अध्यात्मिक स्तर पर उसके सतीत्व रूप की अभ्यर्थना करते हैं। सूफी काव्य में भी आधात्मिक स्तर पर ही नारी को ईश्वर के समकक्ष माना गया है। सामान्य रूप में तो वह ‘गोरखधंधा' ही चित्रित की गई है। राम काव्य में जिस रामराज्य का एक यूरोपिया निर्मित किया गया है उसमें समाज में फैले अनाचार को रोकने के लिए स्त्री-निंदा की गई है, कभी उसे 'ढोल गवार शूद्र पशु नारी' के सामान बताया गया है तो कभी 'नारी हानि विशेष छति नाहीं कहा गया है। यद्यपि इन कवियों ने सीता माता के रूप में नारी वंदना की है परन्तु सामान्य नारियों के प्रति जिस दृष्टिकोण का परिचय दिया गया है वह शोचनीय है। कृष्ण भक्त कवियों ने नारी के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं। यशोदा को वात्सल्य की प्रतिमूर्ति के रूप में चित्रित किया है। राधा कृष्ण की सर्वश्रेष्ठ प्रेमिका हैं, कृष्ण काव्य में पाए जाने वाले मातृरूप, प्रेयसी व पत्नी रूप का चित्रण कर सूरदास ने इनको कृष्ण पर ही अवलंबित माना है, सामान्य नारी को तो सूर भी अद्ध्यात्मिक मार्ग में बाधा ही स्वीकार करते हैं, समान्य रूप में नारी को नागिन, पापिन आदि कहकर उसके कामिनी रूप की निंदा ही की गई हैअतः इस काल में नारी विषयक दृष्टिकोण में द्वैत ही रहा है। भक्तिकालीन कवियों में सीता, राधा, सुमित्रा, कौशल्या, यशोदा, पद्मावती आदि नारियों के आदर्श रूप का चित्रण तो किया है पर सामान्य नारी की सामान्य भावनाओं का चित्रण करने में यह कवि असमर्थ रहे हैंमध्य काल में भारत वर्ष में मुगल सल्तनत के विस्तार के साथ-साथ, भारतीय समाज व नारी की स्थिति बिगड़ती गई एवं नारी के सामने एक के बाद एक समस्यायें पैदा होती रहीं। मुगल काल वह काल था, जब भारतीय नारी ने अपने सतीत्व के रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देने का कार्य किया। मध्य काल में भारतीय नारी का जीवन संकटग्रस्त था। शिक्षा लगभग समाप्त हो गई थी। इस मध्य काल में भी अपनी विद्वता, वीरता, लगन से अपना, अपने परिवार का, अपने समाज व देश का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने वाली रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई, पद्मिनी, जीजाबाई आदि युगों-युगों तक प्रेरणा देती रहेंगी। नैतिकता, सदाचरण व ब्रह्मचर्य पालन में भारतीय पुरूषों की अपेक्षा श्रेष्ठतम् उदाहरण बार-बार पेश करने वाली भारतीय महिलाओं ने पुरातन काल, मध्य काल में ही नहीं वरन् ब्रितानिया हुकूमत के समय भी भारत की जंग-ए-आजादी में अपनी सक्रिय व अविस्मरणीय भूमिका निभाई है। राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी ने भारतीय नारी की दशा को समझते हुए, नारी शिक्षा व अन्य क्रान्तिकारी सुधारों को प्रचारित-प्रसारित करने व लागू करवाने का महानतम् कार्य किया। भारत-पाक विभाजन के समय भी सतीत्व के रक्षार्थ, अपने नश्वर शरीर का त्याग करने वाली भारतीय महिलाओं की बलिदान की उच्च परम्परा के कारण ही भारतीय नारी सदैव सम्मान की पात्र रही गौरवशाली इतिहास और कानूनी अधिकारों के बावजूद आज भारत में आम महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। शीर्ष पदों पर महिलाओं के आसीन होने के बावजूद आज आम महिला को उसका अधिकार व सम्मान प्राप्त नहीं है। ग्रामीण अंचलों में नारी शिक्षा का प्रचार–प्रसार होने के बावजूद अभी अज्ञान की कालिमा मिटी नहीं है। अशिक्षित महिलाओं का अपने अधिकारों की जानकारी न होना, उनका अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न होना ही महिला की पीड़ा का, उसकी समस्या का सबसे बड़ा कारण है। विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से सरकारें महिलाओं को जागरूक करने का प्रयास गैर सरकारी संगठनों व सरकारी महकमों के माध्यम से जारी रखे हुए हैं। यह सत्य है कि बगैर शैक्षिक व कानूनी जागरूकता के वर्तमान युग में महिलाओं को अधिकार व सम्मान मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। यह दुर्भाग्यपूर्ण कटु सत्य है कि 'यत्र नारी पूज्यंतेएतत्र देवता रमन्ते की अवधारणा वाले भारत देश में सामाजिक व पारिवारिक स्तर पर स्त्री की दशा सोचनीय व दयनीय है।समाज के नैतिक पतन का परिणाम है कि जन्मदात्री नारी को पारिवारिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है। नारी घरेलू हिंसा के पाटों के बीच पिसती जा रही है। यदि आम महिलायें अपना कानूनी अधिकार जान जायें, उन अधिकारों की प्राप्ति के प्रति मुखरित हो जाये। तो परिवार व समाज में एक बड़ा भूचाल आ जायेगा। समाज में भारतीय महिलाओं की स्थिति में मध्ययुगीन काल के दौरान और अधिक गिरावट आयी। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जीत ने परदा प्रथा को भारतीय समाज में ला दिया। राजस्थान के राजपूतों में जौहर की प्रथा थी। भारत के कुछ हिस्सों में देवदासियां या मंदिर की महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ा था। बहुविवाह की प्रथा हिन्दू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थीकई मुस्लिम परिवारों में महिलाओं को जनाना क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया थासत्ताधारियों के पास विलास करने हेतु पर्याप्त समय व साधन दोनों मौजूद थे। संघर्ष व कर्म के आभाव में उनका अतृप्त मन वासना पूर्ति के साधन खोजने लगा। इसके लिए उनके आश्रयी कवियों ने उनकी रूचि के अनुसार काव्य रचना की व उनके रचना के केंद्र में रही 'नारी रीतिकाल की रचनाओं में हमें मुगलिया शानों-शौकत की झलक मिलती है। इसके अतिरिक्त सामाजिक जीवन में व्याप्त मनोवृत्तियों का परिचय भी मिलता है। इन सत्ताधारियों की विलासी प्रवृत्ति का परिणाम था कि नारी का चित्रण उसकी तन व्यष्टि के हेतु से हुआ हैनारी के जीवन व उसके सामाजिक अस्तित्व की कोई बात नहीं की गई। रीतिकालीन कविता में जिस प्रकार का प्रेम व्यापार दिखाई देता हैया फिर जिस नायक-नायिका भेद का चित्रण होता है वह तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों को दर्शाने वाला है। रीतिकाल अपनी श्रृंगारिकताए चमत्कारिकता व अलंकार प्रियता जैसी प्रवृत्तियों के लिए विख्यात है। इन प्रवृत्तियों की छाप इनके नारी विषयक दृष्टिकोण पर भी स्पष्ट परिलक्षित होती है। स्त्री मानव संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है। एक स्त्री के कई रूप जैसे—माँ, बहन, पत्नी और बेटी होते है। भारतीय संस्कृति अथवा साहित्य में उसे इस रूपों में देखा, सुना गया है। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता जहाँ नारी का सम्मान होता है वह सुख और समृद्धि का वास होता है, ऐसा हमारे पवित्र ग्रन्थों में कहा गया है। नारी को देवी का प्रतीक भी मानते है। लेकिन समय और समाज अथवा हालात ऐसे बदले है कि आज अखबार और समाचार सभी जगहों पर सबसे विशिष्ट खबर होती है कि महिला ने अपने बच्चों के साथ आत्महत्या की, महिला के साथ सामूहिक बलात्कार या बलात्कार करने का प्रयास, दहेज की बलि चढ़ी युवती या कन्या भ्रूण हत्या आदि आदि। आज के सन्दर्भ में ऐसी स्थिति हो गयी है कि देश के किसी भी कोने में महिला अपने आपको पुरुषों की तरह सुरक्षित नहीं महसूस कर रही है। तमाम प्रगति के बाद भी समाज के हालात बदतर ही है। आज का उत्तर आधुनिक समाज बहुत आगे निकल चुका है फिर भी न जाने क्यों कुछ असामाजिक तत्व हमारे समाज में मौजूद है। पता नहीं आज का समाज चाहता क्या है ? उन्हें भी एक पुरुष के बराबर अधिकार मिलना चाहिए। आज के समय में भारतीय नारी हर क्षेत्र में आगे है। जैसे उदाहरण के तौर पर हमारे देश की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमति प्रतिभा पाटिलए अवनी चतुर्वेदी, सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, सुनिता विलियम्स, किरण बेदी आदि। आज के सन्दर्भ में नारी के बदलते सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के चलते पहले की अपेक्षा बहुत सी सहुलियते मिली है। इतनी कि उन्हें मुक्त मान लिया गया है। जब हम माडल, हिरोइन और अन्य पेशों में आगे बढ़ती हुई स्त्री को देखते है तोयह मान लेते है कि स्त्रियां आजाद हो गई है। क्या वाकई आज की स्त्रियां आजाद हो गई है ?क्या उसकी सभी समस्याओं का अंत हो गया है ?क्या उन्हें वे सभी अधिकार मिल गए हैं?जिनके लिए वह सदियों से लड़ रही है। स्त्री कीपहचान उसका जीवन सब कुछ इस व्यवस्था में चाहे किसी भी धर्म में हो पुरुष ही निर्धारित करता है। उसकी स्वतंत्रता और अस्तित्व को भारतीय समाज स्वीकार नहीं करता। बचपन में पिताए शादी के बाद पति और बुढ़ापे में पुत्र। यानि पूरा जीवन पुरुष की अधीनता ही उसकी नियति है। बचपन से सिखाया जाता है कि तुम परायी हो, शादी के बाद कहा जाता है कि तुमसे परिवार की इज्जत हैऔर बुढ़ापे में बेसहारा यानि बोझ समझा जाता है। बदलते हुए समय में उसे पिता, पति और पुत्र से आजादी चाहिए। स्त्री को मनुष्य के रूप में उसके पूरे अधिकार मिलना चाहिए और वह अधिकार किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं होने चाहिए। अतः हिन्दू धर्म ग्रन्थों में तो स्त्री के स्थान को महत्व दिया गया है। जैसे माता, भू-माता, पृथ्वी माता आदि । लेकिन धर्म के कट्टरवादियों ने धर्म को जाने बिना अपने स्वार्थ के लिए स्त्री पर अत्याचारए शोषण एवं उसके अधिकारों का हनन किया है। आज के समय में धर्म को मानना या नहीं मानना यह अलग बात है, क्योंकि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। अक्सर मुस्लिम औरत' नाम आते ही घर की चारदिवारी में बंद या पर्दे में रहनेवाली स्त्री का चेहरा सामने उभरकर आता है। समय के साथ-साथ मुस्लिम समाज में स्त्रियों के रहन-सहन, पहनावा और बुर्को में भी परिवर्तन आ रहे है। सदियों से सांस लेती औरत ने जब अपनी आजादी के आसमान की तमन्ना की तो सबसे पहली जंग उसे अपने धर्म से लड़नी पडी। धर्म की हैसियत किसी तलवार जैसी है जो औरत के सर पर वर्षों से लटक रही है। औरत इस तलवार के विरुद्ध जाती है तो वह अवज्ञाकारी, विरोधी तो बेहया और वेश्या भी ठहरा दी जाती है। मुस्लिम लेखिकाओं की सोच में कहीं यह बात मजबूती से बैठी है कि हमारे धर्म ने औरतों को बराबरी के अधिकार दिए हैं मगर कट्टर सोच के मर्द और मौलवी उन हकों को देने से डरते है। इसलिए उनका आक्रोश उनकी लेखनी में ऐसे ही विचार एवं मानसिकता रखने वालों पर बड़े दमदार तरीके से टूटता हैऔर परिणामतः विद्रोह का साहित्य सामने आता हैसाथ ही समाज को बुराइयों से बचाने की ललक, शिक्षा प्राप्त करने की तीव्र इच्छा आदि से संबंधित रचनाएँ मिलती है। वर्तमान समाज में स्त्रियों ने सदियों की खामोशी तोड़ी है। अपने व्यक्तिगत जीवन का उद्देश्य, दर्शन उसका मन मिजाज सभी बदल रहा है। अपनी अस्मिता, आत्मचेतना और अस्तित्व बोध के प्रति चेतना संपन्न और जागृत हो रही है। जीवन के हर क्षेत्र में मुस्लिम महिलाएं आज अपना स्थान सुरक्षित कर रही है। चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो, रही है। जीवन के हर क्षेत्र में मुस्लिम महिलाएं आज अपना स्थान सुरक्षित कर रही है। चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो, चाहे विज्ञान का हो, खेलखुद का हो या मनोरंजन का, राजनीतिक हो या फिर प्रशासन का हर क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं को कुछ हद तक देखा जा सकता है। कुछ समृद्ध व आधुनिक परिवारों की लड़कियाँ अब फैशन, मॉडल और विज्ञान प्रचारित भी है। समाज में आज भी कई जगह पर समानता, स्वतंत्रता नहीं है। उस पर पुरुष, परिवार, समाज तथा धर्म सबका दबाव हुआ करता है। परिणामस्वरूप स्त्री खामोश रहने और अपना मुँह बंद रखने के लिए विवश है। इसके साथ हो रहे अत्याचार, शोषण, दहेज तथा घरेलू हिंसा को रोकने के लिए कानून तो बना दिया है लेकिन आज भी महिलाओं पर जोर-जुल्म और अत्याचार में कमी नहीं आयी है। इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकांश महिलाओं को इस संबंध में जानकारी नहीं है, जो इससे अनभिज्ञ है। भारतीय समाज में महिलाओ की जो दशा हुई हैं उसका जिम्मेदार केवल और केवल हमारी अज्ञानत और जकड़न पूर्ण सोच है जो हमारे विकास की बाधक के साथ-साथ इंसानियत पर एक कलंक है आज अगर महिलाओं के साथ ऐस विभत्स व्यवहार जो हो रहा हैवह हमारी इसी सोच की परिणति है ।
वेद प्रकाश
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