राजनीति का गिरता कद


भारत की राजनीति अपने संविधान के ढाँचे में काम करती हैं, क्योंकि भारत एक संघीय संसदीय, लोकतांत्रिक गणतंत्र हैं, जहाँ पर राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता हैं और प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता हैं। भारत एक राजतन्त्र का अनुसरण करता हैं, अर्थात, केन्द्र में एक केन्द्रीय सत्ता वाली सरकार और परिधि में राज्य सरकारें । संविधान में विधान मंडल के द्विसदनीयता का प्रावधान हैं, जिस में एक ऊपरी सदन ; राज्य सभा जो भारतीय संघ के राज्य तथा केन्द्र शासित प्रदेश का प्रतिनिधित्व करता हैं, और निचला सदन लोक सभा जो भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करता हैं, सम्मिलित हैं। शासन व सत्ता सरकार के हाथ में होती है। संयुक्त वैधानिक बागडोर सरकार व संसद के दोनों सदनों, लोक सभा व राज्य सभा के हाथ में होती है। न्याय मण्डल शासकीय व वैधानिक, दोनो से स्वतंत्र होता है। संविधान के अनुसार, 'भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्म निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है। जहां पर सरकार जनता के द्वारा चुनी जाती है। आम आदमी से जुड़े मुद्दों जैसे बेहतर आधारभूत सुविधाँ,, सामाजिक न्याय, सबके लिए शिक्षा और रोजगार, भ्रष्टाचार से मुक्ति , शासन प्रशासन में पारदर्शिता इत्यादि से देश के हर नागरिक चाहे वो किसी भी धर्म, जाति, लिंग या क्षेत्र का हो को जूझना ही पड़ता है। लोकतान्त्रिक देश में सबसे महत्त्वपूर्ण है चुनाव के आधार पर आम लोगों की सत्ता में भागीदारी राजनीति ने समाज की दशा और दिशा के निर्देशन का भी काम किया है। पिछले दशक में एक के बाद एक भ्रष्टाचार के खुलासा, साम्प्रदायिक और भाई-भतीजावाद पर आधारित राजनीति के कारण बनी परिस्थितियों ने अपनी ही बनाई जनतांत्रिक व्यवस्था, अपने ही वोट से चुने हुए दलों के नेताओं और जनप्रतिनिधियों के अत्यंत अस्वीकार्य आचरण को लेकर मर्माहत हैंऔर मोहभंग के दौर से गुजर रहे हैं। आजादी के 70 वर्ष बाद राजनीति के इतिहास में एक नया मोढ़ लोकपाल कानून के लिए जंतर-मंतर पर दिल्ली में अन्ना हजारे के आंदोलन से आया जब भष्टाचार से त्रस्त आम जनमानस को ढाल बना कर के एक नयी राजनीतिक पार्टी का जन्म हुआ, गैर पारम्परिक तरीकों तथा नैतिक मूल्यों का इस्तेमाल करके इस नयी पार्टी ने राजनीती में धुरंधर कहे जाने वाले सियासी दलों के पुराने नजरिये को न सिर्फ बदला बल्कि उन्हें भी इस नजरिये पर मंथन करने को मजबूर कर दिया। खैर भले ही नैतिक मूल्यों की ये राजनीती उस नये राजनीतिक दल का अपने को राजनीति के केंद्र में लाने का एक पैतरा क्यों न रहा हो लेकिन इसने राजनीति के पुराने महारथियों को झकझोर दिया। खैर भले ही नैतिक मूल्यों की ये राजनीती उस नये राजनीतिक दल का अपने को राजनीति के केंद्र में लाने का एक पैतरा क्यों न रहा हो लेकिन इसने राजनीति के पुराने महारथियों को झकझोर दिया। वर्तमान में जिस प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियाँ देश में उत्पन्न की जा रही हैं उसमे साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता शब्द का बोलबाला है, अपने फायदे ले किये टोपी पहनने तथा पहनाने की बात अब पुरानी हो गयी है। आज कल राजनीति में असहिष्णुता शब्द प्रचलन में आ गया है। अनेकता में एकता की विशेषता वाले इस देश में राजनीतिक फायदे के लिए अपनी ही मात्र भूमि को गाली देने का यह एक नया फैशन हैं, अपने आप को प्रबुद्ध वर्ग का मानने वाले ये लोग निजी स्वार्थ के लिए सामाजिक ताने-बाने को बिगड़ने को तैयार बैठे हैंपरम्परागत राजनीति में विशेष भाषा, परिधान और संस्कृति का दिखावी पोषण राजनीति शोषण का आधार बना। इसी के साथ-साथ ‘सेक्युलर' बनने की होड़ में अल्पसंख्यक राजनीति का स्वरुप भी तैयार किया गया। लेकिन तथ्यात्मक सामाजिक सत्य साबित करते हैं कि अब तक की जा रही इस राजनीति ने सामाजिक ताने-बाने को न सिर्फ गहरी चोट पहुचाई है बल्कि एक गहरी खाई बनाने का काम किया है। राजनीति ने अब तक चलने वाले विमर्श साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धीरे-धीरे आम आदमी से जुड़े मुद्दे किनारे होते गये और पूंजीवाद को गहराई से स्थापित किया जाने लगा। राजनीति मुख्यतः चूंकि प्रतीकात्मक मुद्दों के ही आस-पास घूम रही है, जिसके कारण धर्मनिरपेक्ष मुद्दों जैसे आधारभूत सुविधाँ,, सामाजिक न्याय, सबके लिए शिक्षा और रोजगार, भ्रष्टाचार से मुक्ति , शासन प्रशासन में पारदर्शिता जैसे मुद्दे राजनीतिक परिदृश्य से ओझल कर दिए गये हैं। जिसका असर ये हुआ कि हर धार्मिक संप्रदाय, जाति, लिंग व क्षेत्र का मेहनतकश तबका विकास की गति में पिछड़ गया।


   राजनीति से प्रेरित आरक्षण कीव्यवस्था में व्यापक बदलाव की आवश्यकता हैलेकिन जातिगत व्यवस्था पर होने के कारण उसी जाति के धनी लोग को तो इसका लाभ मिल रहा है पर गरीब को अपने हिस्से कालाभ नहीं मिल पा रहा है। इसे जातिगत आधार इसलिए दिया क्यों की उनका जातिगत वोट बैंक बना रहे। आरक्षण का लाभ वास्तविक गरीबों तक पहुँच रहा की नहीं इसकी समीक्षा का समय आ गया है। उचित होगा कि एक सामान्य भारतीय नागरिक की तरह सामाजिक,शैक्षणिक स्थिति के आधार पर उसके आस्तित्व को स्वीकार कर सामूहिक विकास और पारदर्शी व्यवस्था की परिकल्पना की जाये। भारत से प्रतिभा पलायन को रोकने के लिए आरक्षण के आधार की समीक्षा होनी चाहिए। भारत सरकार तुष्टीकरण की नीति अपना कर लोगों को अकर्मण्य बना रही है |यह सब समाज में गैर-बराबरी और वैमनष्य को बढ़ाने जैसा ही है। चुनाव जीत कर सत्ता की कुर्सी तक पहुँचाना हैं और फिर 5 सालों तक जितना हो सके जनता के पैसे से अपना हित करना हैं। आज के नेता सेवक नहीं शक्ति में मदहोश अकुशल राजा बन गए हैं, जो अपना कर्तव्य भूल चुके हैं। आज चरों तरफ सिर्फ मतलबी राजनीति है। राजनीति, कहीं वोट की तो कही नोट की, कहीं जाति की तो कहीं धर्म की, कहीं क्षेत्र की तो कहीं देश की, कहीप्यार में राजनीति तो कही नफरत में राजनीति, कहीं दोस्ती में राजनीति तो कहीं दुश्मनी में राजनीति, कहीं गाँव की तो कहीं शहर की, कहीं अपनो की तो कहीं परायों की, पर कहीं न कहीं राजनीति तो हो रही है। कहने का तात्पर्य, राजनीति शब्द का क्षेत्र जितना व्यापक है उतना ही संकुचित। भारत में राजनीति और भ्रष्टाचार का इतिहास बहुत पुराना है। बाबरनामा में उल्लेख हैकि कैसे मुट्ठी भर बाहरी हमलावर भारत की सड़कों से गुजरते थेसड़क के दोनों ओर लाखों की संख्या में खड़े लोग मूकदर्शक बन कर तमाशा देखतेथे। बाहरी आक्रमणकारियों ने कहा हैकि यह मूकदर्शक बनी भीड़, अगर हमलावरों पर टूट पड़ती, तो भारत के हालात आज शायद अलग होते। इसी तरह प्लासी की लड़ाई में एक तरफ लाखों की सेना, दूसरी तरफ अंग्रेजों के साथ मुट्ठी भर सिपाही, पर भारतीय हार गये।


    भारतभूमि हमारे दर्शन, संस्कृति और सभ्यता की मां कही जा सकती हैविश्व का ऐसा कोई श्रेष्ठता का क्षेत्र नहीं था, जिसमे भारत ने सर्वोच्च स्थान न हासिल किया हो। चाहे वह वस्त्र निर्माण हो, आभूषण और जवाहरात का क्षेत्र हो, कविता और साहित्य का क्षेत्र हो, बर्तनों और महान वास्तुशिल्प का क्षेत्र हो अथवा समुद्री जहाज का निर्माण क्षेत्र हो, हर क्षेत्र में भारत ने दुनिया को अपना प्रभाव दिखाया। आजादी के बाद से हमारे देश में राजनीतिक पार्टियों, राजनेताओं व नौकरशाहों के चरित्र और नैतिक मूल्यों में लगातार गिरावट ने दर्शाया है कि धृतराष्ट्र का कुर्सी प्रेम किन-किन विचित्र खेलों को जन्म देता है। चुनाव लड़ना अब हिंसा, धन और बाहुबल का खेल होकर रह गया है।हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं में अपराधियों की भरमार होती जा रही है। क्या यही बापू के सपनों का भारत हैघ् मंत्री, अफसर, धन्नासेठ सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों की कठपुतली बने हु, हैं। कुल मिलाकर देश का भविष्य इन्हीं के हाथों में कैद होता जा रहा। देशवासियों के सामने एक प्रश्न यह भी है कि आखिर हम क्यों पी रहे हैं, पानी खरीदकर, प्रकृति प्रदत्त हवा, पानी पर तो सभी का समान अधिकार है। फिर कौन लोग हैंजो पानी बेच रहे हैं, लोग आखिर क्यों खरीद रहे हैं, पानी। सरकार क्या कर रही हैं। जीने के लिए दो जून की रोटी की जरूरत तो सभी को है, लिहाजा कुछ लोग गरीबी, भुखमरी, तंगहाली के चलते तो कुछ पैसे कमाने की खातिर खून बेचने, खरीदने का धंधा कर रहे हैं। अब पानी का व्यवसाय फल-फूल रहा है। ऐसी स्थिति में वह दिन दूर नहीं जब सांस लेने के लिए हवा खरीदनी पड़ेगी। आखिर लोग विरोध क्यों नहीं करते ? विकास के नारे लगाने वाले लोग क्या पैसे की चकाचौंध में अंधे हो गए समाज सेवा का क्षेत्र हो या धर्म-अध्यात्म अथवा राजनीति का, चारों ओर अवसरवादी, सत्तालोलुप, आसुरी वृत्ति के लोग ही दिखाई देते हैं। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र आज व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के केंद्र बन गए हैं। व्यापार में तो सर्वत्र कालाबाजारी, चोर बाजारी, बेईमानी, मिलावट, टैक्सचोरी आदि ही सफलता के मूलमंत्र समझे जाते हैं। गरीबी का अर्थ समाज की क्षमताओं और विचारों के अनुरूप जीवन स्तर और जीवन प्रणाली से वंचित होना है। गरीबी निवारण का अर्थ है लोगों को ऐसा जीवन स्तर और जीवन प्रणाली प्रदान करना जिससे वे सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक जीवन में संयुक्त रूप से सहभागिता प्राप्त कर सकें। क्या यह सही नहीं है कि आज देश में आजादी की क्रांति की भांति ही एक और बगावत की सख्त जरूरत है? ताकि, भ्रष्टाचार, बेईमानी, बेरोजगारी, हिंसा, अशिक्षा, असमानता, गरीबी, महंगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद का अंत हो सके। भारत माता की इस पीड़ा को कौन समझेगा।


                                                                                                   वेद प्रकाश


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