नारी ॥. स्वतन्त्र अस्तित्व


 


निर्भया मातृसत्तात्मक सत्ता से शुरू हुई सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, पारम्परिक आर्थिक आदि व्यवस्थाएं प्राकृतिक समाज या प्रकृतिवादी जीवन जीने की एक स्वाभाविक शैली थी। सभ्यता रूपी अवधारणा ने, अपने बन्धनों में, अपनी तरह बॉध कर रख दिया। जैसे-जैसे हम सभ्यता की अप्राकृतिक व्यवस्था को अपनाते चले गये वैसे - वैसे ही नारी के अधिकारों का शोषण हो त । च ल ग य ।। मातृसत्तात्मक समाज को पाशविक सामाजिक व्यवस्था कहा जाने लगा, जिसका मूल कारण था पौरूषेय समाज का उदय। मातृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति प्रकृति की गोद में स्वतन्त्र विचरण करता था और प्रकृति के नियमों के साथ तालमेल बनाये हुए था। परन्तु जैसे - जैसे जनसंख्या में वृद्धि हुई और किसी एक व्यक्ति ने कहा कि यह वस्तु मेरी है, वहीं पौरूष या बल को स्थान मिल गया। पौरूष या बल के कारण पुरूष ने अपनी सत्ता कायम की और लगातार सम्पत्ति या वस्तु पर ही नहीं अपितु स्त्रियों तथा पुरूषों पर भी सत्ता कायम की। सत्ता के संघर्ष में शारीरिक बल को महत्व मिला। सत्ता के विस्तार के लिये आपसी लड़ाई - झगड़े या युद्ध हुए और शारीरिक बल या पौरूषेय समाज या सत्ता का अस्तित्व प्रधान हुआ। प्रकृतिवादी सभ्यता को पाशविक अवधारणा का रूप मिलता चला गयाऔर कृत्रिम सभ्यता को बल मिला, जिसका परिणाम यह हुआ कि जड़, जोरू और जमीन के लिए युद्ध हुए। छोटे-छोटे पारिवारिक निर्भया युद्धों से लेकर बड़े - बड़े राज्य विस्तार के युद्ध या मल –युद्ध हुए, जिसमें शारीरिक बल की प्रधानता रहीसत्ता के शारीरिक बल की प्रधानता रही। सत्ता के साथ- साथ साहित्य और सामाजिक अवधारणयें बदलती रहीं । नारी को उपभोग या विलासिता की वस्तु समझा जाने लगा। नारी को देवी कहकर छला गया तथा वैश्या कहकर प्रताड़ित किया गया। लगातार साहित्य और सभ्यता की नयी नयी परिभषायें गढ़ी गयी और सत्ता की ताकत से उन्हें समाज में बेचा और फैलाया गया। धर्म के नाम पर नारी को दूसरे दर्जे का स्थान दिया गया। नारी के कार्यों का कोई भी मूल्य नहीं लगाया गया, गुलामों की तरह। अपने द्वारा गढी गयी सभ्यता से नारी के अस्तित्व को न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से अपंग बना दिया गया। नारी के मानसिक पटल पर पुरूष कीछवि देवता, पालनहार, सुरक्षा देने वाला और मोक्ष तक पहुँचाने वाला आदि अवधारणाये गढ़ी गयी। समाज के बिके बौद्धिक साहित्यकारों , समाज सुधारकों एवं धर्म सा के ठेकेदारों द्वारा नारी विरोधी नये सभ्य समाज की विचारधारा को फली - भूत किया और आज भी बेचा जा रहा है। नारी इज्जत को संजोकर रखने वाली, पुरूष की उपभोग वस्तु तथा दासी बन कर रह गयी। इसी गढी गयी सभ्यता की सामाजिक मर्यादा के माध्यम से ईश्वर को या मोक्ष को प्राप्त कर सकती है। ऐसी अवधारणयें धार्मिक, सामाजिक संगठनों के द्वारा प्रदत्त परम्पराओं और सभ्यताओं के निर्माण ने नारी के अस्तित्व को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक चारों तरफ से शोषित किया है।



भोजन, वस्त्र, आभूषण, पहिनावें आदि के माध्यम से नारी को असहज तथा असुरक्षित किया है। जिसका परिणाम है। कि आज तीन साल की बच्ची को सहना और चीख के कहना पड़ता है निर्भया कहाँ है ? पुरूष प्रधान समाज के मानस मस्तिष्क में, चेतन या अचेतन में , नारी दोयम दर्जे या विलासिता की वस्तु के रू. में मानचित्रित है। जब भी बलात्कार की घटनाएं होती है तो चाहे वह तीन वर्ष की बच्ची हो या अन्य किसी उम्र की नारी, उस समय बलात्कारी के मानस पटल पर अपने पुरूष होने, नारी को विलासिता और अपने उपभोग की वस्तु समझने का ही आभास होता। इन्हें उत्तेजित करने के लिए वह नशीले पदार्थ का सेवन भी पुरूषत्व आभास के लिए ही करता है। आज के सभ्य तथा संसाधन पूर्ण समाज में, जैसे सोशल मीडिया, टी वी सिनेमा , विज्ञापन आदि के द्वारा नारी को सौन्दर्य, उपभोग और विलासिता के रूप में प्रस्तुते किया जाता है। परिवार तथा सामाजिक दायरे में नारी को प्रेम वश कर या विभिन्न प्रकार के दबावों से, धर्म के नाम पर तथा नैतिकता के नाम पर भ्रमपूर्ण जकड़े मानसिक विचार लम्बे समय से भरे जाते रहे हैं, जिसमें पुरूष के साथ - साथ कुछ नारियों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण स्वयं आगे आकर ऐसे विचारों को पोषित किया। धर्म तथा नैतिकता की आड़ से नारी का शोषण करने में अहम भूमिका निभाई। आज की नारी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। मर्यादा , सभ्यता, संस्कृति, धर्म, मोक्ष, शिक्षा, और साहित्य आदि को समझने के लिए नारी स्वविवेक के तराजू पर अपने को तौलने का सम्भव प्रयास कर रही है, लेकिन संगठन और धर्म के ठेकेदार अपनी दुकाने बचाने के लिए, कुछ नारियों, कुछ साहित्यकारों, कुछ प्रदर्शनकारी बौद्धिक समाज को पद, सत्ता, पैसा, प्रतिष्ठा आदि के लुभावने लालच देकर ऐसी अमानवीय मर्यादाओं को बचाने के लिए सभ्यता, परम्परा, धर्म, नैतिकता आदि भ्रम पूर्ण व्याख्या कर समाज को भ्रमित करते है। ऐसे समाज के ठेकेदार समाज में दोहरी जिन्दगी जीते हैं, एक तो अपने व्यक्तिगत आर्थिक स्वार्थ, पद, प्रतिष्ठा को सिद्ध करने के लिए विभत्स नारी विरोधी प्रचार करते है और दूसरे सामाजिक मानवीय नारी सशक्तिकरण आन्दोलन का सहारा लेते है, जैसे टी वी चैनलों और जिम्मेदार मीडिया नारी के सौन्दर्य को विलासिता में दिखाते हैं, वहीं अपने को मानवीय दिखाने के लिए नारी सशक्तिकरण की स्क्रिप्ट तैयार करते है। समय का चक बदलाव की दिशा में आन्दोलित है |पहले यह घटनायें घटनायें नहीं समाज में नारी शोषण की सामाजिक नैतिक प्रक्रिया थी जिसमें पीड़ा पीड़ित को ही भुगतनी पड़ती थी। आज नारी स्वयं जागी है।



बलात्कार में विरोध में वह शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से लड़ रही है। अपने अस्तित्व को तलाश लड़ रही है। अपने अस्तित्व को तलाश रही है। सहयोग भी अपनों से मिल रहा है। मॉ - बाप तथा यहाँ तक की समाज भी अब इन भ्रम पूर्ण विचारों से मुक्त है। मानवीय संवेदनाएं और नारी को, द्वेम दर्जा न देकर पुरूष तथा स्त्री का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। यह स्वीकार्य है, जिसमे एक दूसरे की तुलना करना मानवीय भ्रम है। यहां तक की एक पुरूष की दूसरे पुरूष से तुलना करना बेईमानी होगी, उसी तरह स्त्री और पुरूष की तुलना भी बेईमानी है। क्योकि सभी का अपना अस्तित्व और अपना अलग धर्म है। राजनीति, समाज, शिक्षा, पद, प्रतिष्ठा, मान - सम्मान, सेना, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में आज नारी अपना जगह बना चुकी है। हमारे या मानवीय पतन का कारण ही है एक मस्तिष्क का सही उपयोग न होना। खुशी है, समाज द्वारा नारी के अस्तित्व को स्वीकार किया जा रहा हैकानूनी तथा मानवीय मूल्यों की परिभाषा में नारी को बराबर का स्थान मिल रहा है। सबसे बड़ी बात है नारी अब अधिकार और कर्तव्यों की परिभाषा स्वयं करने में सक्षम हो रही है। ठेकेदारों का सहारा लेना बन्द हो रहा है। जिस दिन नारी के प्रति के यह सोच पूर्णरूपेण बदल दी जायेगी कि वह अबला, वैश्या, घर की इज्जत, मर्यादा, उपभोग की वस्तु, बेसहारा है, तब वह कलंकित व्यवस्था की परिभाषा से दूर हो जायेगी, उसका अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व है, उसके अपने स्वतन्त्र जीवन जीने के विचार है। उस दिन हमे यह नही पूंछना पड़ेगा कि निर्भया कहा है ? समाज, धर्म , परिवार, मॉ - बाप , भाई - बहन, मित्र आदि अभय होकर कहेंगे -निर्भया यहाँ है।


                                                                                      वेद प्रकाश


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