राष्ट्रीयकरण के साथ,मुफ्त और अनिवार्य हो शिक्षा


छह से चौदह वर्ष तक के हर बच्चे के लिए नजदीकी विद्यालय में मुफ्त आधारभूत शिक्षा अनिवार्य है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बच्चों से किसी भी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा और न ही उन्हें शुल्क अथवा किसी खर्च की वजह से आधारभूत शिक्षा लेने से रोका जा सकेगा- शिक्षा का अ धि कर अ ध् िनि य म । बच्चे किसी भी देश की सर्वोच्च संपत्ति हैं। वे संभावित भविष्य है। शिक्षा एक आदमी के जीवन में सार्वभौमिक महत्व का विषय है। भारत 66 प्रतिशत गरीब साक्षरता दर रखता है, 2007 में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन द्वारा दी गई और जैसा कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट 2009 में भारत विश्व साक्षरता रैंकिंग में 149 स्थान है। स्वर्गीय गोपाल कृष्ण गोखले ने 18 मार्च 1910 में ही भारत में मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के प्रावधान के लिए ब्रिटिश विधान परिषद् के समक्ष प्रस्ताव रखा था जो निहित स्वार्थों के विरोध के चलते अंततः खारिज हो गया। मुफ्त शिक्षा का क्या हुआ आलोचनाओं और दुष्प्रचार की वजह से सरकारी स्कूलों से लोगों का भरोसा लगातार कम हुआ है और छोटे शहरों, कस्बों और गांवों तक में बड़ी संख्या में निजी स्कूल खुले हैं। भारत में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून लागू हुए छह साल हो गए। इस कानून को बनाने में हमें पूरे सौ साल लगे। 1910 में गोपाल कृष्ण गोखले ने सभी बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा के अधिकार की मांग की थी। इसके बाद 1932 वर्धा में हुए सम्मेलन में महात्मा गांधी ने इस मांग को दोहराया था लेकिन बात बनी नहीं। आजादी के बाद शिक्षा को संविधान के नीति निदेशक तत्त्वों में ही स्थान मिल सका, जो कि अनिवार्य नहीं था और यह सरकारों की मंशा पर ही निर्भर था। 2002 में भारत की संसद में 86वें संविधान संशोधन द्वारा इसे मूल अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया। इस तरह से शिक्षा को मूल अधिकार का दर्जा मिल सका। 1 अप्रैल 2010 को शिक्षा का अधिकार कानून 2009 पूरे देश में लागू हुआ। अब यह एक अधिकार हैजिसके तहत राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना है कि उनके राज्य में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ-साथ अन्य जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों और इसके लिए उनसे किसी भी तरह का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शुल्क नहीं लिया जा सकेगा। इस कानून को लागू करने से पहले भी भारत में बुनियादी शिक्षा को लेकर काफी समस्याएं थीं और कानून आने के बाद इसमें कुछ नई दिक्कतें भी जुड़ी हैं, जैसे पर्याप्त और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, शिक्षकों से दूसरे काम कराया जाना, सतत एवं व्यापक मूल्यांकन व्यवस्था को लेकर जटिलताएं, नामांकन के बाद स्कूलों में बच्चों की रुकावट और बच्चों के बीच में पढ़ाई छोड़ने की दर अभी बड़ी चुनौतियां हैं, लेकिन इसके सकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं। आज लगभग सौ फीसद नामांकन हो गया है जो की एक बड़ी उपलब्धि है और अब शहर से लेकर दूरदराज के गांवों में लगभग हर गॉव या उसके आसपास स्कूल खुल गए हैं। उपलब्धियां होने के बावजूद हमारी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था लगातार आलोचनाओं के घेरे में रही है। इस दौरान भारत में बुनियादी शिक्षा को लेकर जितनी नकारात्मक रही हैं। सवाल उठता है कि आखिर इसकी वजह क्या है? क्या कानून में कोई कमी रह गई है या फिर हम इसे ठीक से लागू ही नहीं कर पा रहे हैं। ? आलोचनाओं और दुष्प्रचार की वजह से सरकारी स्कूलों से लोगों का भरोसा लगातार कम हुआ है और छोटे शहरों कस्बों और गांवों तक में बड़ी संख्या में निजी स्कूल खुले हैं। इनमें से ज्यादातर निजी स्कूलों की स्थिति सरकारी स्कूलों से भी खराब है और उनका मुख्य ध्यान शिक्षा नहीं ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है। शिक्षा क्षेत्र एक व्यापार के रूप में स्थापित हो चुका है उनमें समाज के सबसे प्रभावशाली वर्ग के लोग शामिल हैं। इधर सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या लगातार घट रही हैं जबकि निजी स्कूलों में इसका उल्टा हो रहा है। देश के नियंत्रक महालेखा परीक्षक, कैग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सरकारी स्कूलों में वर्ष 2010-11 में कुल नामांकन 1 करोड़ 11 लाख था, जो 2014-15 में 92 लाख 51 हजार रह गया है, जबकि निजी स्कूलों में छात्रों की संख्या में 2011-12 से 14-15 में 38 प्रतिशत बढ़ी है। इन सबके बावजूद भारत के 66 फीसद प्राथमिक विद्यालय के छात्र सरकारी स्कूल या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में जाते हैं। यह कानून 6 से 14 साल की उम्र के ही बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता हैऔर इसमें 6 वर्ष के कम आयु वर्ग के बच्चों की कोई बात नहीं की गई है यानी बच्चों के प्री.एजुकेशन को नजरअंदाज किया गया है। 15 से 18 आयु समूह के बच्चे भी कानून के दायरे से बाहर रखे गए हैं। इसी तरह से निजी स्कूलों में 25 फीसद सीटों पर कमजोर आय वर्ग के बच्चों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह एक तरह से गैर बराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देता है और सरकारी शालाओं में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर निजी स्कूलों की ओर हो जाता है। जो परिवार थोड़े बहुत सक्षम हैं वे अपने बच्चों को पहले से ही निजी स्कूलों में भेज रहे हैंलेकिन जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर हैं, उन्हें भी इस ओर प्रेरित किया जा रहा है। कानून को लागू करने में भी भारी कोताही देखने को मिल रही है। बीस प्रतिशत स्कूल तो एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं और उनका भी ज्यादातर समय रजिस्टर भरने और मिड डे मील का इंतजाम करने में चला जाता है। इसी तरह से स्कूलों को अतिथि शिक्षकों के हवाले कर दिया गया है जो शिक्षक कम और ठेके का कर्मचारी ज्यादा लगता है। इन सबका असर शिक्षा की गुणवत्ता और स्कूलों में बच्चों की रुकावट पर देखने को मिल रहा है। बजट को लेकर भी समस्याएं हैं। नवीनतम बजट में सर्व शिक्षा अभियान के लिए 52 फीसद राशि ही आबंटित की गई है, लेकिन सबसे बड़ी समस्या तो सरकारों के तौर-तारीकों में है। कानून बन जाने के बाद वे इसे सबसिडी योजना के नजरिए से ही देख रही है। जन भागीदारी और निगरानी की बात करें तो शिक्षा कानून के तहत स्कूलों के प्रबंधन में स्थानीय निकायों और स्कूल प्रबंध समितियों को बड़ी भूमिका दी गई है। कानून के अनुसार स्थानीय निकाय स्कूल के विकास के लिए योजनाएं बनाएंगी और सरकार द्वारा दिए गए अनुदान का इस्तेमाल करेंगी और पूरे स्कूल के वातावरण को नियंत्रित करेंगी लेकिन ऐसा हो नहीं पाया हैं, इसके पीछे कारण यह है कि या तो लोग पर्याप्त जानकारी और प्रशिक्षण के आभाव में निष्क्रिय हैं या फिर एक दूसरे पर दोष मढ़ने और अपना निजी फायदा देखने में व्यस्त हैं। गुणवत्ता सहित सभी पहलुओं पर निगरानी के लिए राष्ट्रीय और राज्य बाल अधिकार आयोगों को भूमिका दी गईथी। आयोग बन भी गए हैं, लेकिन निगरानी का तंत्र भी अभी तक विकसित नहीं हो पाया है। इन सब रुकावटों के बावजूद कुछ ऐसी कहानियां और प्रयोग हैं। जो उम्मीदों को बनाए हुए हैं। हमें यह समझना होगा कि शिक्षा केवल राज्य का ही विषय नहीं है और केवल ठीकरा फोड़ने से मामला और बिगड़ सकता है। स्कूलों को सरकार और समाज मिल कर ही सुधार सकते हैं।


           6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराई जाएगीनिजी स्कूलों को 6 से 14 साल तक के 25 प्रतिशत गरीब बच्चे मुफ्त पढ़ाने होंगे। इन बच्चों से फीस वसूलने पर दस गुना जुर्माना होगा। शर्त नहीं मानने पर मान्यता रद्द हो सकती है। मान्यता निरस्त होने पर स्कूल चलाया तो एक लाख और इसके बाद रोजाना 10 हजार जुर्माना लगाया जायेगा। मुफ्त और अनिवार्य से जरूरी हैसमान शिक्षा अच्छा होता कि सरकार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का बिल लाने पर जोर देने के बजाय कॉमन स्कूल का बिल लाने पर ध्यान केंद्रित करती। सरकार यह क्यों नहीं घोषणा करती कि देश का हर बच्चा एक ही तरह के स्कूल में जाएगा और पूरे देश में एक ही पाठ्यक्रम पढ़ाया जाएगा। मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के तहत सिर्फ 25 फीसदी सीटों पर ही समाज के कमजोर वर्ग के छात्रों को दाखिला मिलेगा। यानि शिक्षा के जरिये समाज में गैर बराबरी पाटने का जो महान सपना देखा जाता वह कभी भी पूरा नहीं ह । ग । । मुफ्त शिक्षा की बात महज धोखा है क्योंकि इसके लिए बजट प्रावधान का जिक्र विध् य क म न हीं है । विधेयक में छः साल तक के 17 करोड़ बच्चों की कोई बात नहीं कही गई है। संविधान में छः साल तक के बच्चों को संतुलित आहार, स्वास्थ्य और पूर्व प्राथमिक शिक्षा का जो अधिकार दिया गया है, वह इस विधेयक के जरिए छीन लिया गया है। इस विधेयक में लिखा हैकि किसी भी बच्चे को ऐसी कोई फीस नहीं देनी होगी जो उसको आठ साल तक प्रारंभिक शिक्षा देने से रोक दे। इस घुमावदार भाषा का शिक्षा के विभिन्ना स्तरों मनमाने ढंग से उपयोग किया जाता है। इस कानून का क्रियान्वन कैसे होगा, यह स्पष्ट नहीं है। निःषुल्क शिक्षा को फीस तक परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसमें शिक्षण सामग्री से लेकर सम्पूर्ण शिक्षा है या नहीं, यह देखना होगा। शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की जरूरत विश्व बैंक की एक रपट कहती है कि भारत में छह से दस साल के कोई तीन करोड़ बीस लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत में शिक्षा को लेकर बच्चों में खासा भेदभाव है। शिक्षा का सरकारी तंत्र जैसे ठप्प पड़ चुका है। निर्धारित पाठ्यक्रम की पुस्तकें मांग के अनुसार उपलब्ध कराने में एनसीइआरटी सरीखी सरकारी संस्थाएं बुरी तरह विफल रही हैं। जबृकि प्राइवेट या पब्लिक स्कूल अपनी मनमानी किताबें छपवा कर कोर्स में लगा रहे हैं। यह पूरा धंधा इतना मुनाफे वाला बन गया है कि अब छोटे-छोटे गांवों में भी पब्लिक या कानवेंट स्कूल खुल रहे हैं। कच्ची झोपड़ियों, गंदगी के बीच बगैर माकूल व्यवस्था के कुछ बेरोजगार एक बोर्ड लटका कर प्राइमरी स्कूल खोल लेते हैं। इन ग्रामीण स्कूलों के छात्र पहले तो वे लोग होते हैं जिनके पालक पैसे वाले होते हैं और अपने बच्चों को निजी स्कूल में भेजना गर्व समझते हैं। कुल मिला कर दोष जर्जर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के सिर पर जाता है जो आम आदमी का विश्वास पूरी तरह खो चुकी है। अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए पालक मजबूरी में इन शिक्षा की दुकानों पर खुद लुटने को पहुंच जाते हैं। लोग भूल चुके हैंकि दसवीं पंचवर्षीय योजना के समापन तक यानी सन 2007 तक शत प्रतिशत बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का सपना बुना गया था, जिसे ध्वस्त हुए दसक बीत चुका ह विश्व बैंक की एक रपट कहती है कि भारत में छह से दस साल के कोई तीन करोड़ बीस लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत में शिक्षा को लेकर बच्चों में खासा भेदभाव है। लड़कों-लड़कियों, गरीब-अमीर और जातिगत आधार पर बच्चों के लिए पढ़ाई के मायने अलग-अलग हैं। रपट के अनुसार दस वर्ष तक के सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तेरह लाख स्कूली कमरे बनवाने होंगे और 740 हजार नए शिक्षकों की जरूरत होगी। सरकार के पास खूब बजट है और उसे निगलने वाले कागजी शेर भी। लेकिन मूल समस्या स्कूली शिक्षा में असमानता की है। प्राथमिक स्तर की शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन देश के भविष्य की नैतिक शिक्षा का पहला आदर्श शिक्षक जब तीन हजार रुपए पर दस्तखत कर बमुश्किल डेढ़.दो सौ रुपये का भुगतान पा रहा हो तो उससे किस स्तर के ज्ञान की उम्मीद की जा सकती है। जब पहली कक्षा के ऐसे बच्चे को जिसे अक्षर ज्ञान भी बमुश्किल है उसे कंप्यूटर सिखाया जाने लगे महज इसलिए कि पालकों से इस नाम पर अधिक फीस वसूली जा सकती हैतो किस तरह तकनीकी शिक्षा प्रसार की बात सोची जा सकती है? प्राइवेट स्कूलों की आय की जांच, फीस पर सरकारी नियंत्रण, पाठ्यक्रम, पुस्तकों आदि का एकरूपीकरण, सरकारी स्कूलों को सुविधा संपन्न बनाना, आला सरकारी अफसरों और जनप्रतिनिधियों के बच्चों की सरकारी स्कूलों में शिक्षा की अनिवार्यताए निजी संस्था के शिक्षकों का वेतन सुनिश्चित करना सरीखे सुझाव समय समय पर आते रहे और लाल बस्तों में बंध कर गुम होते रहे हैंअतुल्य भारत के सपने को साकार करने की प्राथमिक जरूरत स्तरीय प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य पाने का एकमात्र तरीका है.,स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण। अपने दो या तीन वर्ग किलोमीटर के दायरे में आने वाले स्कूल में प्रवेश पाना सभी बच्चों का हक हो, सभी स्कूलों की सुविधाएं, पुस्तकें, फीस एक समान हो, मिड डे मील सभी को एक जैसा मिले और कक्षा आठ तक के सभी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। फिर न तो किताबों का विवाद होगा और न ही मदरसों की दुर्दशा पर चिंता। यह सब करने में खर्चा भी अधिक नहीं है, बस जरूरत है तो इच्छाशक्ति की। जो अभिभावक नामचीन निजी स्कूलों में अपने बच्चों के दाखिले के लिए लाखों रुपये डोनेशन देते हैं वे अगर इसका एक अंश अपने घर के पास के सरकारी स्कूल में लगाएंगे, जहां उनका बच्चा पढ़ता है तो स्कूल स्तर पर विषमता की खाई आसानी से पाटी जा सकेगी । दुनिया के सभी विकसित देशों व कई विकासशील देशों ने भी 99-100 प्रतिशत तक साक्षरता की दरें हासिल कर ली हैं। आधे बच्चे विद्यालय स्तर की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। यहां सबसे बड़ी दिक्कत है समान शिक्षा प्रणाली का न होना और उसके साथ पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू न करना। यदि ये दोनों बातें लागू होती हैं तो सभी बच्चों को लगभग एक गुणवत्ता वाली शिक्षा हासिल करने का अवसर उपलब्ध होगा।


         दुनिया के जिन देशों ने 99 या 100 प्रतिशत साक्षरता की दर हासिल कर ली है उसमें बड़ा योगदान इन अवधारणाओं का है। जनवरी 2013 में प्रधान मंत्री ने एक रपट जारी करते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है भारत में आधे बच्चे कुपोषित हैं। अब यदि प्रधानमंत्री ही शिकायत करने लगे तो समाधान कौन ढूंढेगा? यह राजनीतिक इच्छा शक्ति का स्पष्ट प्रमाण है। अमरीका जैसे घोर पूंजीवादी देश में विद्यालय स्तरीय शिक्षा पड़ोस के विद्यालय में पूरी होती है जिसका संचालन स्थानीय निकाय करता है। यहां कोई शुल्क नहीं लगता बल्कि किताबें, यूनिफॉर्म और घर से आने-जाने के लिए बस का खर्च भी विद्यालय ही वहन करता है। सबसे बड़ी बात है कि सभी बच्चों के लिए एक समान शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध रहती है। जो काम दुनिया के कई विकसित एवं विकासशील देशों ने कर दिखाया है वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र क्यों नहीं कर रहा? भारत में 1968 में कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली एवं पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू करने की सिफारिश की थी। किंतु तब से लेकर अब तक सभी सरकारों ने उसे नजरअंदाज किया है। 2009 में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ जिसने कमजोर तबकों के परिवारों के बच्चों को सभी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की। पहले तो सरकारें इस प्रावधान को क्रियान्वित करने में गम्भीर नहीं थीं। अब निजी विद्यालय कानून के इस प्रावधान की काट निकालने की तमाम कोशिश कर रहे हैं। निजी विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण जरूरी इससे बड़ा मजाक क्या होगा कि पूरे उत्तर प्रदेश के सभी जिलों के बेसिक शिक्षा अधिकारियों ने मिल कर अभी तक करीब तीन हजार से थोड़ा कम ही बच्चों का दाखिला कराया हैइतने थोड़े से बच्चों का दाखिला करा कर सरकार हर गरीब बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी कैसे पूरी करेगी? ऐसी व्यवस्था में सरकार को निजी विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण करके उनको समान शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था के तहत संचालित करना चाहिएआज शिक्षा का अधिकार कानून तो बन गया है, पर इस दिशा में सरकारों ने कितने कार्य किये हैं, गौर करने वाली बात है, सरकारी विद्यालयों की जो स्थिति है उसके लिए सिर्फ और सिर्फ सरकारी तंत्र जिम्मेवार है । क्योंकि आज सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई कम बल्कि केवल कागजी रिपोर्ट देने में हीं समय बिता देते हैं शिक्षक शिक्षक भी क्या करें उनसे जो काम लिया जायेगा वहाँ तो कार्य करेंगे । आज सरकार चाहती ही नहीं हैं की सरकारी विद्यालयों में शिक्षण कार्य हो । शिक्षकों से कई तरह के काम जनगणना, चुनाव कार्यए बी0एल0ओ0 कार्य, कई ऑफिसों में बतौर लिपिक का कार्य में प्रतिनियुक्ति, पशुगणना, आर्थिक सर्वेक्षण, जाति आधारित जनगणना, ब्लॉक में प्रतिनियुक्ति किसी कार्य हेतु इत्यादि अनेकों कार्य में लगा दिए जाते हैं । जो विद्यालय में हैं उन्हें तो स्कूल के रिपोर्ट प्रतिदिन तैयार करने, एम0डी0एम0 बनवाने, हिसाबकिताब रखने में व्यस्त रख दिया गया है सरकार द्वारा । इनके अलावे जो बच गए हैं उनमे कुछ नेतागिरी में पढ़ाई से कोसो दूर हैं, कुछ गप्पे लड़ाने समय बिता देते हैं । कुछ ही शिक्षक ऐसे हैं 10 प्रतिशत, जिनके भरोसे स्कूल चलता हैं । जिन्हें भी जांच अधिकारी, स्कूल के अन्य सहयोगी शिक्षक परेशान करते हैं । ऐसे में बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ होता है 70 प्रतिशत बच्चों की शिक्षा सरकारी स्कूलों में हींउनके अभिभावक की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण पूर्ण होती है । सभी चाहते हैं कि उनके बच्चों की शिक्षा प्राइवेट स्कूलों में हो । पर इन स्कूलों में शिक्षा की दुकान चलती है । ये व्यवस्था के नाम पर मोटी रकम की मांग करते हैं । स्कूल से हीं किताब, ड्रेस, नास्ताखरीदने को विवश कर रहे हैं इनके व्यवस्थापक | कमाई का पूरा का पूरा हिस्सा मात- पिता का लग जाता है । शिक्षा का अधिकार कानून बना देने से सभी बच्चों को शिक्षा नहीं मिल जायेगी । सभी बच्चों को कहीं भी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है । प्राइवेट स्कूल क्यों शोषण कर रहे हैं हमारे नवनिहालों का, अ + JI + II व क । क । । सभी निजी विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाये अनिवार्य रूप से ताकि प्राइवेट और सरकारी का अंतर समाप्त हो जाये । जिस तरह से सरकार सड़क बनाने के लिए भूमि अधिग्रहण कर लेती है। इस तरह के अन्य बहुत से तरीके हैं शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए सबसे अहम बात है की सभी लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे तभी सरकारी स्कूल की स्थिति सुधरेगी । क्योंकि सभी की जिम्मेवारी बढ़ जायेगी । शिक्षक से लेकर अभिभावक तक सरकारी स्कूल से जुड़ेंगे और चाहेंगे की उनके बच्चे का विकास हो और इसके लिए रूचि रखेंगेविद्यालय के शिक्षण में । निजी विद्यालय का अस्तित्व सरकारी स्कूलों की खामियों के कारण ही है सरकार अरबों रूपये खर्च करती है शिक्षा पर, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता है । कारण की सरकारी स्कूल की शिक्षण से किसी का लगाव ही नहीं होता है सरकार पैसे खर्च तो कर दी पर उसका सही क्रियान्वयन हुआ की नही कोई देखने वाला नहीं है पैसों की लूट हो जाती हैपदाधिकारियों के बीच और कार्य कुछ नहीं होता है । शिक्षकों के वेतन पर खर्च होता है पर शिक्षकों ने बैठे बैठे पैसे ले लिए और कार्य कुछ नही किया ऐसा नहीं होना चाहिए सभी को अपना अपना दायित्व कर्तव्य निभाना चाहिए आप 100 रूपये किसी पर खर्च करते हो तो उसका हिसाब लेते हो । क्या खरीदा, कैसा खरीदा, पैसा ठीक जगह खर्च किया की नहीं, काम की चीज है कि नहीं, इत्यादि देखते हैं । सरकार के पैसे भी तो हमारे पैसे हैं उनका सही उपयोग हो रहा है की नहीं कौन देखेगा, अतःतमाम अनुभवों को देखने के बाद यह बात समाने आती है कि सरकार को पूरी तरह से शिक्षा व्यवस्था को अपने हाथों में ले लेना चाहिए तथा शिक्षा का राष्ट्रीय करण कर देना चाहिए तभी देश की शिक्षा व्यवस्था सुधर पायेगी और देश में समानता का माहौल बन पायेगा, तभी देश का भविष्य उज्जवल होगा।


                                                                                 वेद प्रकाश


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