RTI संशोधनः साफ नियति या अधिकारों का हनन







 14 साल बाद आरटीआई के कानून में बदलाव

  

     तारीख थी 12 अक्टूबर. सरकार ने एक नया कानून लागू किया. नाम था सूचना का अधिकार. अंग्रेजी में कहते हैं राइट टू इन्फर्मेशन यानी कि आरटीआई. कानून लागू हुआ और फिर इस कानून के जरिए दबी-छिपी सूचनाएं भी लोगों के पास पहुंचने लगीं. खूब तारीफ हुई इस कानून की. मनमोहन सिंह की सरकार भी 2009 में दोबारा सत्ता में आई. कानून चलता रहा, लोगों तक सूचनाएं पहुंचती रहीं. करीब 14 साल का वक्त बीता. साल आया 2019. सरकार बदली और एक बार फिर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सत्ता में आ गई. कानून चलता रहा. लेकिन 22 जुलाई, 2019 एक ऐसी तारीख थी, जब इस कानून में बदलाव की बात हुई. मोदी सरकार लोकसभा में सूचना का अधिकार कानून में संशोधन लेकर आई. संशोधन के पक्ष में 218 वोट पड़े और विरोध में पड़े माक्ष 79 वोट. और ये संशोधन बिल लोकसभा में पास भी हो गया. राज्यसभा ने सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को चर्चा के बाद ध्वनिमत से पारित कर दिया। साथ ही सदन ने इस विधेयक को सिलेक्ट कमिटी यानी प्रवर समिति में भेजने के लिए लाए गए विपक्ष के सदस्यों के प्रस्तावों को 75 के मुकाबले 117 मतों से खारिज कर दिया। उच्च सदन में इस प्रस्ताव पर मतदान के समय बीजेपी के सी. एम. रमेश को कुछ सदस्यों को मतदान की पर्ची देते हुए देखा गया। कांग्रेस सहित विपक्ष के कई सदस्यों ने इसका कड़ा विरोध किया। विपक्ष के कई सदस्य इसका विरोध करते हुए आसन के सामने आ गए। बाद में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद ने इस घटना का उल्लेख करते हुए आरोप लगाया कि आज पूरे सदन ने देख लिया कि आपने (सत्तारूढ़ बीजेपी) ने चुनाव में 303 सीटें कैसे प्राप्त की थीं? उन्होंने दावा किया कि सरकार संसद को एक सरकारी विभाग की तरह चलाना चाहती है। उन्होंने इसके विरोध में विपक्षी दलों के सदस्यों के साथ वॉक आउट की घोषणा की। इसके बाद विपक्ष के अधिकतर सदस्य सदन से बाहर चले गए।

      2005 में जब ये बिल पास हुआ था, तो इससे पहले ये बिल संसद की कई समितियों जैसे कार्मिक मामलों की संसदीय समिति, लोक शिकायत समिति और कानून और न्याय समिति के सामने गया था और वहां से मंजूर हुआ था. इस समितियों में उस वक्त के बीजेपी के सांसद और अब राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद, बलवंत आप्टे और राम जेठमलानी जैसे बीजेपी के नेता शामिल थे. उस वक्त इस बीजेपी नेताओं की कमिटी ने कहा था कि मुख्य सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार के सेक्रेटरी के बराबर होनी चाहिए. वहीं कमिटी ने कहा था कि केंद्र के सूचना आयुक्त और राज्य के सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार के अडिशनल सेक्रेटरी या जॉइंट सेक्रेटरी के बराबर होनी चाहिए. ईएमएस नचीअप्पन के नेतृत्व में बनी संसदीय समिति ने 2005 में जब अपनी रिपोर्ट पेश की, तो नए नियम सामने आए, जो 14 साल तक चले
क्या है अभी का कानून और क्या होंगे बदलाव?


राइट टू इन्फर्मेशन ऐक्ट 2005 के दो सेक्शन में बदलाव हुए हैं. पहला है सेक्शन 13 और दूसरा है सेक्शन 16.

 

2005 के कानून में सेक्शन 13 में जिक्र था कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का कार्यकाल पांच साल या फिर 65 साल की उम्र तक, जो भी पहले हो, होगा.

 2019 में संशोधित कानून कहता है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का कार्यकाल केंद्र सरकार पर निर्भर करेगा.

 साल 2005 के कानून में सेक्शन 13 में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त की तनख्वाह का जिक्र है. मुख्य सूचना आयुक्त की तनख्वाह मुख्य निर्वाचन आयुक्त की तनख्वाह के बराबर होगा. सूचना आयुक्त की सैलरी निर्वाचन आयुक्त की सैलरी के बराबर होगी.
 2019 का संशोधित कानून कहता है कि मुख्य सूचना आयुक्त की सैलरी और सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार तय करेगी.


 2005 के ओरिजिनल आरटीआई ऐक्ट के सेक्शन 16 में राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त का जिक्र है. इसमें लिखा है कि राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य के सूचना आयुक्त का कार्यकाल पांच साल या 65 साल की उम्र तक, जो भी पहले हो, तब तक होगा.

 2019 का संशोधित कानून कहता है कि राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य के सूचना आयुक्त का कार्यकाल केंद्र सरकार तय करेगी.

 2005 के ओरिजिनल ऐक्ट के मुताबिक राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त की सैलरी राज्य के निर्वाचन आयुक्त की सैलरी के बराबर होगी. राज्य के सूचना आयुक्त की सैलरी राज्य के मुख्य सचिव के बराबर होगी.

 संशोधित ऐक्ट के मुताबिक राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त की सैलरी केंद्र सरकार तय करेगी.

    विरोध?


19 जुलाई, 2019 को इस बिल को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में पेश किया. 22 जुलाई को ये बिल लोकसभा से पास भी हो गया, लेकिव विपक्षी पार्टियां बिल में हुए इन संशोधनों का विरोध कर रही हैं. विपक्ष के नेताओं का तर्क है कि इन संशोधनों के जरिए केंद्र सरकार सूचना के अधिकार कानून की स्वायत्ता खत्म कर रही है. विपक्ष का तर्क है कि अब सरकार अपने पसंदीदा केस में सूचना आयुक्तों का कार्यकाल बढ़ा सकती है और उनकी सैलरी बढ़ा सकती है. लेकिन अगर सरकार को किसी सूचना आयुक्त का कोई आदेश पसंद नहीं आया, तो उसका कार्यकाल खत्म हो सकता है या फिर उसकी सैलरी कम की जा सकती है.

     तर्क 


केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जितेंद्र प्रसाद ने बिल में बदलाव का समर्थन किया है.
केंद्र सरकार का तर्क ये है कि सूचना आयुक्त की सैलरी और उनका कार्यकाल इलेक्शन कमीशन की सैलरी और उनके कार्यकाल पर निर्भर करता है. लेकिन इलेक्शन कमीशन का काम और सूचना आयुक्त का काम अलग-अलग है. लिहाजा दोनों के स्टेटस और उनके काम करने की स्थितियां अलग-अलग हैं. गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में कहा कि केंद्रीय सूचना आयुक्त को सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर दर्जा दिया गया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जज के आदेश को चुनौती दी जा सकती है, लेकिन आरटीआई के साथ ऐसा नहीं है.
      संसद ने गुरुवार को सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून में संशोधन संबंधी एक विधेयक को मंजूरी दे दी। सरकार ने आरटीआई कानून को कमजोर करने के विपक्ष के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार पारदर्शिता, जन भागीदारी और सरलीकरण के लिए प्रतिबद्ध है। इस विधेयक में प्रावधान किया गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा के अन्य निबंधन एवं शर्ते केंद्र सरकार द्वारा तय किए जाएंगे। विधेयक पर चर्चा का जवाब देते हुए कार्मिक एवं प्रशिक्षण राज्य मंत्री जितेन्द्र सिंह ने कहा कि आरटीआई कानून बनाने का श्रेय भले ही कांग्रेस अपनी सरकार को दे रही है किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के शासन काल में सूचना के अधिकार की अवधारणा सामने आई थी। उन्होंने कहा कि कोई कानून और उसके पीछे की अवधारणा एक सतत प्रक्रिया है जिससे सरकारें समय-समय पर जरूरत के अनुरूप संशोधित करती रहती हैं। जितेंद्र सिंह ने कहा कि उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि मोदी सरकार के शासन काल में आरटीआई संबंधित कोई पोर्टल जारी किया गया था। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार के शासनकाल में एक ऐप जारी किया गया है। इसकी मदद से कोई रात बारह बजे के बाद भी सूचना के अधिकार के लिए आवेदन कर सकता है। उन्होंने विपक्ष के इस आरोप को आधारहीन बताया कि नरेन्द्र मोदी सरकार के शासनकाल में अधिकतर विधेयकों को संसद की स्थायी या प्रवर समिति में भेजे बिना ही पारित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि यूपीए के पहले शासनकाल में पारित कुल 180 विधेयकों में से 124 को तथा दूसरे शासनकाल में 179 में 125 को स्थायी या प्रवर समिति में नहीं भेजा गया था। सिंह ने मोदी सरकार के शासनकाल में केन्द्रीय सूचना आयुक्त और अन्य आयुक्तों के पद लंबे समय तक भरे नहीं जाने के विपक्ष के आरोपों पर कहा कि इन पदों को भरने की एक लंबी प्रक्रिया होती है और पूर्व में भी कई बार यह पद लंबे समय तक खाली रहे हैं। उन्होंने ध्यान दिलाया कि मुख्य सूचना आयुक्त की चयन समिति की 3 बार बैठक इसलिए नहीं हो पाई क्योंकि लोकसभा में तत्कालीन विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे बैठक में नहीं आए। जितेंद्र सिंह ने कहा कि आरटीआई अधिनियम में पहले ही केंद्र को नियम बनाने का अधिकार दिया गया है, आज भी वही व्यवस्था है। विधेयक के उद्देश्यों एवं कारणों में कहा गया है कि आरटीआई अधिनियम की धारा-13 में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की पदावधि और सेवा शर्तो का उपबंध किया गया है। इसमें कहा गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन, भत्ते और शर्ते क्रमश: मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के समान होंगी। इसमें यह भी प्रावधान किया गया है कि राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन क्रमश: निर्वाचन आयुक्त और मुख्य सचिव के समान होगा। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के वेतन एवं भत्ते एवं सेवा शर्ते उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के समतुल्य हैं। वहीं केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग, सूचना अधिकार अधिनियम 2005 के उपबंधों के अधीन स्थापित कानूनी निकाय है। ऐसे में इनकी सेवा शर्तो को सुव्यवस्थित करने की जरूरत है।
          आरटीआई कार्यकर्ता, विपक्षी पार्टियां और यहां तक कि पूर्व सूचना आयुक्त भी इस तरह के किसी संशोधन का कड़ा विरोध कर रहें हैं. उन्हें डर है कि इस संशोधन से सूचना आयोग और सूचना आयुक्तों की स्वायत्तता और स्वतंत्रता प्रभावित होगी. 2018 में यह ​विधेयक पेश हुआ था और सांसदों में वितरित भी हो गया था, लेकिन इसी विरोध के कारण सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे.
          2013 से 2018 तक भारत के केंद्रीय सूचना आयुक्त रह चुके प्रोफेसर श्रीधर आचार्युलू कहते हैं कि यह संशोधन सूचना आयोग को सरकार के अधीन ला देगा. उनके मुताबिक, इसके खतरनाक परिणाम होंगे. सूचना अधिकार का पूरा क्रियान्वयन इसी बात पर टिका है कि सूचना आयोग इसे कैसे लागू करवाता है. आरटीआई एक्ट की स्वतंत्र व्याख्या तभी संभव है जब यह सरकार के नियंत्रण से आजाद रहे.
           आचार्युलू यह भी चिंता जताते हैं कि जब केंद्रीय सूचना आयुक्त, सूचना आयुक्त और राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त आदि की हैसियत/पदवी फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर है. अगर यह घटा दी जाएगी तो सरकार में उच्च पदों पर बैठे लोगों को निर्देश जारी करने का उनका अधिकार भी कम हो जाएगा. इसलिए यह संशोधन 'आरटीआई एक्ट की हत्या' कर देगा. यह संघीय तंत्र की अवज्ञा होगी, इससे गुड गवर्नेंस और लोकतंत्र कमजोर होगा.
          केंद्रीय सूचना आयोग में 2009 से 2012 तक सूचना आयुक्त रह चुके शैलेश गांधी इस संशोधन को 'बेहद दुर्भाग्यपूर्ण' बताते हुए कहते हैं कि इस संशोधन का मतलब है कि सरकार सूचना आयोग स्वतंत्रता को नियंत्रित करना चाहती है. वे कहते ​हैं कि यहां तक कि इस संशोधन का कोई पर्याप्त कारण भी नहीं दिया जा रहा है. जो कारण दिया गया है, उसे 'पूरी तरह अपर्याप्त' बताते हुए वे कहते हैं कि भारत का आरटीआई एक्ट दुनिया में अच्छे कानूनों में से एक है. अगर इसमें कोई कमी है तो वह इसके क्रियान्वयन की है. कम से कम सरकार को जो कुछ भी करना था, वह एक सार्वजनिक परामर्श के बिना नहीं करना चाहिए था.
        एक प्रमुख आरटीआई कार्यकर्ता और पूर्व कमोडोर लोकेश बत्रा कहते हैं, सरकार की ओर से सूचना आयोग की स्वायत्तता छीनने और नागरिकों के जानने के अधिकार को खत्म कर देने की यह दूसरी कोशिश है. कमोडोर बत्रा यह भी कहते हैं कि यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट के फरवरी 2019 के (अंजलि भारद्वाज व अन्य बनाम भारतीय संघ एवं अन्य के मामले में दिए गए) निर्णय के ​भी खिलाफ होगा. सुप्रीम कोर्ट में सूचना आयोग में खाली पदों के मामले को निपटाते हुए कहा था कि आरटीआई एक्ट के सेक्शन 13(5) के तहत केंद्रीय सूचना आयुक्त, सूचना आयुक्त की नियुक्ति पर वही नियम और शर्तें लागू होंगी, जो केंद्रीय चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों के मामले में लागू होती हैं.



 


                                                                   ved prakash



 













  

 






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