दुनियाँ को महिलाओं की नजर से देखो


मैं तो कभी भी अपने कर्मचारियों के मध्य चाहे वह महिला हो या पुरुष कोई अंतर नहीं समझता बल्कि इसके बारे में कोई विचार भी मेरे मन में नही आता तो महिला कर्मचारी उत्तर में कहती है कि इसी कारण कि कंपनी का मालिक महिला और पुरुष कर्मचारियों में कोई अंतर नहीं करता बल्कि इस प्रकार का विचार ही नहीं रखता, इसी के कारण मैं अपना काम छोड़ना चाहती हूं


                समानता इस समय महिलाएं सुरक्षित जीवन की दृष्टि से अतीत की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। इस समय महिलाएं आर्थिक क्षेत्रों में उन्हें उचित शिक्षा सुविधा प्राप्त है और अधिकांश महिलाओं को मतदान का अधिकार भी मिल गया है। वर्तमान समय में कार्यरत महिलाओं के प्रतिशत में वृद्धि हुई है। विभिन्न देशों के आर्थिक व सामाजिक विकास में उनकी भागीदारी बढ़ रही है। वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने महिलाओं के सामाजिक विकास की प्रक्रिया की समीक्षा के लिए एक विशेष बैठक का आयोजन किया। इस बैठक में निर्धनता, शिक्षा, प्रशिक्षण, स्वास्थ्य व हिंसा आदि जैसी महिलाओं की 12 प्रमुख समस्याओं की ओर संकेत किया गया। सरकारों ने इस बैठक में वचन दिया था कि वे व्यवहारिक नीतियों और उचित कार्यक्रमों द्वारा समाज में महिलाओं के विकास में सहायता प्रदान करेंगी तथा महिलाओं से संबंधित समस्याओं जैसे पारिवारिक हिंसा, बाल विवाह पर्दा प्रथा और निर्धनता आदि से अधिक गंभीरता के साथ निपटेंगी। इस समय महिलाओं की  समस्या और उनकी भूमिका, चर्चाओं के ज्वलंत विषयों में परिवर्तित हो चुकी है। हालांकि विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति में किसी सीमा तक बेहतरी आई है किंतु आंकड़े यह दर्शाते हैं कि बीसवीं शताब्दी महिलाओं के लिए विशेषकर विकासशील देशों में बहुत अच्छी नहीं रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए अभी लंबी यात्रा पूरी करनी है। अब भी समान कार्यों के लिए महिलाओं का वेतन पुरुषों के वेतन का 50 या 80 प्रतिशत ही होता है। विश्व के 87 करोड़ 50 लाख निरक्षरों में दो तिहाई संख्या महिलाओं की है। युद्ध में विस्थापित होने वालों में 80 प्रतिशत बच्चे और महिलाएं हैं।  हर दूसरे मिनट एक महिला से बलात्कार होता है। स्पष्ट है कि हालिया दशकों में पश्चिम में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं किंतु यह सिक्के का एक रुख है। वास्तविकता यह है कि पश्चिम में अब भी महिला को प्रयोग के सामान के रूप में देखा जाता है। पश्चिमी समाजों में अनियंत्रित स्वतंत्रता, महिलाओं की मानवाय प्रातष्ठा व सम्मान क लिए एक गंभीर खतरा है। इसके साथ ही इन देशों में महिलाओं और पुरुषों के मध्य प्राकृतिक में महिलाओं और पुरुषों के मध्य प्राकृतिक अंतरों की अनदेखी से भी महिलाओं के लिए एक प्रकार का मानसिक संकट उत्पन्न हुआ है। उदाहरण स्वरूप स्वीडन में जब एक कंपनी की एक महिला कर्मचारी अपना काम बदलने के लिए जब अपने मालिक से अपील करती है और उसका मालिक अत्यंत अचरज से कहता है कि पता नहीं ऐसा क्यों हुआ मैं तो कभी भी अपने कर्मचारियों के मध्य चाहे वह महिला हो या पुरुष कोई अंतर नहीं समझता बल्कि इसके बारे में कोई विचार भी मेरे मन में नही आता तो महिला कर्मचारी उत्तर में कहती है कि इसी कारण कि कंपनी का मालिक महिला और पुरुष कर्मचारियों में कोई अंतर नहीं करता बल्कि इस प्रकार का विचार ही नहीं रखता, इसी के कारण मैं अपना काम छोड़ना चाहती हूं समानता को एक बार परिभाषित करना ही होगा क्योकि इसकी अभी तक कोई भी परिभाषा जीवंत नही हो पायी है। पुरुष और महिला को प्राकृतिक समानतादिया जाये। पुरुष और पुरुष में ही कोई  समानता नही होती है तो अन्य लिंग और जाति के प्राणी के साथ समानता कैसे संभव है। फिर समानता का तात्पर्य क्या है यह जानना और समझना अति आवश्यक हो जाता है। जहाँ महिला अपने गर्भ में 9 माह तक बच्चे को जीवन देती है, असहनीय पीड़ा को सहन करती है तो इस काम को किस समानता में रख जाये जो इसे पुरुष के काम से मेल खाता हो कहने का तात्पर्य है किसी कार्य को महिला ठीक ही कर सकती है तो कोई कार्य पुरुष ही कर सकता है या ठीक से कर सकता है। जीवन के का निर्धारण किसी एक कार्य से न हो कर समग्रता में निहित है। समाज का प्रत्येक प्राणी एक दूसरे का पूरक है। प्राणी की स्वतन्त्रता और आवश्यकता के में दृष्टिगत रखता है। ईश्वर पर विश्वास रखने वाले पुरुष और ईश्वर के आदेशों का पालन करने वाली महिलाएं, सच बोलने वाले पुरुष और सच बोलने वाली महिलाएं, संयमी पुरुष और संयमी महिलाएं, ध्यान रखने वाले पुरुष और ध्यान रखने वाली महिलाएं, पवित्र चरित्र वाले पुरुष तथा पवित्र चरित्र वाली महिलाएं ईश्वर को अत्यधिक याद करने वाले पुरुष और ईश्वर को अत्यधिक याद करने वाली महिलाएं ईश्वर ने इन सब के लिए क्षमा व बड़ा पुरस्कार है। संसार के बुद्धिजीवियों और विचारकों से आशा की जाती है कि वे वर्तमान संसार तथा महिलाओं की मानवीय क्षमताओं में आने वाले परिवर्तनों के दृष्टिगत कानूनों पर पुनर्विचार करेंगे। दूसरा गुट उन शासकों और अधिकारियों का है जिन्हें अपने दीर्घकालीन कार्यक्रमों में महिलाओं के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और ज्ञान संबंधी प्रगति तथा उत्थान का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। तीसरा गट स्वयं महिलाओं का है कि जिन्हें ज्ञान व विज्ञान के संबंध में प्रगति करके अपनी योग्यताओं और क्षमताओं में वृद्धि करनी चाहिए। नारी, समाज का अभिन्न अंग है जो कि प्रकृति स्वरूप या गहरी रुढ़ियों के कारणदुर्बल है। प्रारंभ में समाज में स्त्री एवं पुरुष में प्राणिशास्त्रीय विभाजन था जो कालांतर में सामाजिक विभाजन का रूप लेता गया और नारी को भोग-विलास की वस्तु मान लिया गया जिसके परिणामस्वरूप उसकी स्थिति दयनीय हो गई। लिंग पर आधारित भेदभाव और अस्वीकार्य असमानताएं सभी देशों में आज भी विद्यमान हैं। दुनिया का शायद ही ऐसा कोई देश हो जहां महिलाएं, पुरुषों के साथ समान अधिकार का उपयोग करती हों। महिलाओं के साथ भेदभाव और उन्हें हाशिये पर कर दिए जाने का कार्य बड़ी दक्षता और सम्मानजनक तरीके से किया जाता रहा है। इस संदर्भ में अंतरर्राष्ट्रीय विधि में महिलाओं के अधिकारों की घोषणा की गई जो भेदभाव न करने के सिद्धांत पर आधारित है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिलाओं पर चतुर्थ विश्व सम्मेलन बीजिंग में वर्ष 1995 में आयोजित किया गया था। यह सम्मेलन विश्व स्तर पर आयोजित दुनिया के विशालतम सम्मेलनों में से एक था। इस सम्मेलन का नारा था 'दुनिया को महिलाओं में की दृष्टि से देखो। इस सम्मेलन में एक बीजिंग घोषणा पर महिलाओं के लि ए प्लेटफार्म अंगीकृत कि या गया था।  महिलाअ की स्थिति पर इस सम्मेलन का कितना असर हुआ, महिलाओं की स्थिति में क्या परिवर्तन हुआ, इसी को दृष्टिगत संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी डिविजन के आर्थिक एवं सामाजिक संबंध विभाग द्वारा 'विश्व महिलाएं 2015 : प्रवृत्ति एवं सांख्यिकी' रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी है। इस रिपोर्ट में महिलाओं एवं पुरुषों के बीच आठ बिंदुओं पर विद्यमान असमानताओं पर आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक मामले, विभाग द्वारा 20 अक्टूबर, 2015 को 'विश्व महिलाए : प्रवृत्ति एवं सांख्यिकी' का छठवां संस्करण जारी किया गया। इस संस्करण में पिछले 20 वर्षों के दौरान वैश्विक एवं क्षेत्रीय स्तर पर महिलाओं और पुरुषों की स्थिति में आए परिवर्तनों के आंकड़े एवं उनका विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। वर्ष 1995 में संपन्न बीजिंग घोषणा-पत्र में महिलाओं से संबंधित पहचाने गए आठ बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है। ये आठ बिंदु हैं-जनसंख्या एवं परिवार, स्वास्थ्य, शिक्षा, काम, शक्ति एवं निर्णय निर्माण, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा, पर्यावरण एवं गरीबी। कुदरत ने मर्द और औरत के बीच कोई भेदभाव नहीं किया है।क्यो कि भिन्नता ही प्रकृति की समानता है। क्षेत्र और क्षमता को अवसर प्रदान करना ही समानता है और प्रकृति की नियति, कहने को तो तमाम मजहबों ने भी औरत और मर्द को बराबर माना है लेकिन दुनिया के हर देश और समाज में औरतों और पुरुषों में भेदभाव होता नज़र आता है और औरतों को दोयम दर्जा दिया जाता है। आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि दर्द और इसके इलाज को लेकर भी औरतों और मर्दों में फर्क किया जाता है। हाल में हुए कुछ शोधों से ये चौंकाने वाली बात सामने आई है। इनके मुताबिक अगर औरत को कोई तकलीफ हो या उसे किसी तरह का दर्द हो तो मामूली दर्द ही समझा जाता है। जबकि मर्द की तकलीफ का ज्यादा संजीदगी से इलाज होता है। बात सुनने में अजीब ज़रूर लगती है, लेकिन है ये तल्ख हकीकत महिलाओं में माहवारी के दौरान दर्द होना आम बात है। कुछ को ये ज्यादा होता है और कुछ को कम। किसी को ये दर्द कई दिन पहले शुरू हो जाता है और मासिक धर्म जारी रहने तक रहता है। जबकि कुछ को फौरन राहत मिल जाती है। बहुत-सी महिलाएं इस दर्द से राहत के लिए घरेलू नुस्खे अपनाती हैं। वहीं कुछ औरतें मासिक धर्म का दर्द बर्दाश्त नहीं होने पर डॉक्टर के पास चली जाती हैं। लेकिन इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। सामान्य दर्द बता कर उन्हें कोई भी मामूली दर्द निरोधक दवा दे दी जाती है। जबकि माहवारी का ये दर्द मामूली तकलीफ नहीं। नॉर्मन के मुताबिक ये एन्डोमेट्रियोसिस की समस्या है। जिसकी सबसे बड़ी वजह है तनाव, डिप्रेशन और अनियमित दिनचर्या । वैसे तो कामकाजी महिलाओं में इसके लक्षण ज्यादा पाए जाते हैं लेकिन घरेलू महिलाओं को भी ये परेशानी हो सकती है। एन्डोमेट्रियोसिस के कारण गर्भाशय के अलावा आस-पास के अंदरूनी कई अंगों पर यहां तक कि फैलोपियन ट्यूब और उसके आसपास एन्डोमेट्रियम टिशू पैदा हो जाते हैं। इसकी वजह से दर्द काफी ज्यादा होता है। लेकिन डॉक्टर इसे सामान्य दर्द मानकर छोड़ देते हैं। नॉर्मन कहती हैं कि मेडिकल इंडस्ट्री में औरतों के दर्द को नज़रअंदाज़ करने का इतिहास लंबा है। अब इसकी वजह मर्द औरत के दरमियान किया जाने वाला भेदभाव है या मर्द औरत में अपना-अपना दर्द बताने के तरीके का अंतर, ये कहना मुश्किल है। लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं कि महिलाओं की बीमारियों को लेकर अलग से रिसर्च करने की मेडिकल साइंस में हमेशा कमी रही है। एक स्टडी में पाया गया है कि अगर मर्द और औरत एक जैसे दर्द के साथ इमर्जेंसी डिपार्टमेंट में आते हैं, तो औरत पर मर्दो को तरजीह दी जाती है। यही नहीं तुरंत आराम पहुंचाने वाली पेनकिलर भी मर्यों को पहले दी जाती हैं, जबकि औरतों को कम असर वाली दवाएं दी जाती हैं। डॉक्टर का इंतज़ार भी महिलाओं को ज्यादा करना पड़ता है। तेज़ असर करने वाली पेनकिलर पर रिसर्च करने वाली अमरीकी डॉक्टर ईस्थर शेन भी इस बात को मानती हैं कि इमर्जेंसी वॉर्ड में महिलाओं को मर्दो के मुकाबले कम तवज्जो दी जाती है। लेकिन इसे भेदभाव की नज़र देखा जाना कितना सही है, कहना मुश्किल है। ये महिलाओं के दर्द को बयान करने के तरीके का फर्क भी हो सकता है। मिसाल के लिए जब महिलाएं पेट दर्द की शिकायत करती हैं, तो पहली नज़र में इसे स्त्री रोग से जोड़ कर देखा जाता है। उसे मामूली दवाओं से ठीक करने की कोशिश होती है। जबकि मर्द अगर ऐसे ही दर्द की शिकायत करते हैं, तो उनका इलाज ज्यादा क्लिनिकल तरीके से किया जाता है। यही नहीं महिलाओं को कई बार ज्यादा दर्द की शिकायत करने पर मनोचिकित्सक के पास भेज दिया जाता है। जबकि मर्दो के दर्द की वजह जानने के लिए कई तरह की जांचें कराई जाती हैं। अमरीका के क्रोनिक पेन रिसर्च अलायंस के डॉयरेक्टर क्रिस्टीन वीज़ली कहते हैं कि कई मर्तबा डॉक्टर औरतों को उनके दर्द की ऐसी वजहें बता देते हैं, उनके दर्द की ऐसी वजहें बता देते हैं, जिन्हें सुनकर हैरानी होती है। जैसे सेक्स के दौरान होने वाले दर्द से छुटकारा पाने के लिए सलाह दी जाती है कि हमबिस्तर होने से पहले एक गिलास शराब ले लो। इसी तरह और भी कई तरह की सलाहें दी जाती हैं। आम ख्याल ये है कि महिलाएं छोटी सी दिक्कत को भी बढ़ा-चढ़ा कर बताती हैं। ब्रिटेन में की गई एक स्टडी के मुताबिक़ औरतों के मुकाबले मर्द 32 फीसद कम डॉक्टर के पास जाते हैं। जबकि कुछ रिसर्च इसी बात को नकारते हैं। मिसाल के लिए कमर और सिर दर्द की शिकायत मर्द, औरत दोनों में बराबर होती है। और बहुत तरह के दर्द की शिकायत के लिए महिलाएं डॉक्टर के पास जाती ही नहीं। एबी नॉर्मन का कहना है कि अभी तक मेडिकल की ज्यादातर रिसर्च मर्यों ने मर्दो पर ही की हैं। यहां तक कि मेडिकल की किताबें भी मर्दो के नजरिए से लिखी गई हैं। 2015 में अमरीका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने एक पॉलिसी लॉन्च की, जिसके तहत फंड तभी मिलेगा जब रिसर्च में मर्द और औरत दोनों शामिल होंगे। एक शोध के मुताबिक, पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को डॉक्टर का इंतज़ार ज्यादा देर तक करना पड़ता है। अस्तित्व की लडाई लड़ते-लड़ते प्रकृति और प्राणीमात्र का अस्तित्व ही समाप्त होता जा रहा है अगर यही हाल रहा तो प्रकृति परिवर्तनशील है जो न अज्ञानी है न ही अहंकारी। उसका अस्तित्व सदैव है। परन्तु उसने जो हमें यहाँ रहने के लिए संपूर्ण व्यवस्था के साथ जगह दी है, वह अस्तित्व हम अपने लिए खो देगे या देते जा रहे है। स्वार्थ पूर्ण गढ़ी गई मान्यताओं को आज तोड़ना होगा, जकड़न पूर्ण विचारों से स्वार्थी लोगों की दुकानों को बन्द करना होगा। मेरा और तेरा की श्रेष्ठा से बचना होगा। आपसी मान-सम्मान और समानता को समझना होगा। छोटा-बड़ा की जहरीली विचारधारा से पहले हमें स्वयं बचना चाहिए इसके बाद दूसरों को बचाने का प्रयास करना होगा। कार्यो के मूल्यॉकन को समानता की पृष्ठभूमि में रखना होगा। तभी प्राणी मात्र का अस्तित्व बचाया जा सकता है। इसलिए समानता की गढ़ी गई परिभाषा को बदलना होगातभी नारी को उसका सम्मान और सुरक्षा हम दे पायेगे। जिसकी शुरूआत हमारे मस्तिष्क से ही प्रारम्भ होती है। दोष लगाना बहुत सरल है, परन्तु उसे समझना उतना ही कठिन है, और उससे भी कठिन है उसे अपने जीवन में उतारना तभी जाकर हम निर्भया जैसी घटनाओं को रोक सकते है यह एक मानसिक और सामाजिक तिरस्कार का कार्य है जिसकी शुरूआत ही व्यक्ति से होती है। निर्भय होकर जीना और जीने के लिए दूसरों को अधिकृत करना ही निर्भया के अस्तित्व को बचा सकता है। समानता शब्द अपने अन्तः पर अस्तित्व को समाहित किये हुए है स्वतन्त्रता को समाहित किये हुए है। प्रसन्नता को समाहित किये हुए है। गुण-धर्म को समाहित किये हुए है। समानता का अर्थ प्राणी के अस्तित्व से है। समानता का अर्थ प्राणी की स्वतन्त्रता, प्रसन्नता, गुण-धर्म की रक्षा से है। फिर वह चाहे पुरुष या नारी के बीच हो या सम्पूर्ण प्राणी या प्रकृति के मध्य । जिस प्रकार से पुत्र के लिए माँ और पिता के प्रेम, सम्मान, और अस्तित्व समान होता है। जबकि दोनों के दायित्व, कार्यशैली, भाव आदि भिन्न होते हुए भी, साधनों की भिन्नता होते हुए भी, साध्य की सार्थकता समान होती है। व्यक्ति की कार्य-शैली, प्राकृतिक गुण-धर्म का पूर्ण उपयोग और एक दूसरे के अस्तित्व और स्वतन्त्रता का अर्थ ही समानता है। यही प्राकृतिक संतुलन और रचनात्मक सृजन है। जो अस्तित्व और स्वतन्त्रता की रक्षा करते हुए, प्राणी के कार्य-शैली और गुण-धर्म के अनुसार समान अवसर प्रकृति प्रदान करती है। प्रकृति के प्रत्येक प्राणी और वस्तु की कार्य-शैली और गुण-धर्म एक दूसरे से अलग है। सभी के अस्तित्व और कार्य-शैली एक दूसरे से भिन्न है और प्रकृति इनके अस्तित्व और स्वतन्त्रता को बनाये रखने का पूर्ण अवसर बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण प्राणी, व्यक्ति या वस्तु को प्रदान करती है। जिससे प्रकृति का अस्तित्व सृजनात्मक सनातन कायम रहता है। जो समान अवसर इनके गुण-धर्म के अनुसार उसे प्राप्त होते है। यही समान अवसर ही गुण-धर्म, अस्तित्व और स्वतन्त्रता के अनुसार देना और लेना ही समानता की ओर इंगित करता है। यही स्वतन्त्रता है। यही अस्तित्व है। यही सम्मान है। यही प्रकृति का नियम है। यही प्राकृतिक संतुलन है। यही सृजन है, और यही समानता है। अब दुनियाँ को महिलाओं की नजर से देखो।


                                                 वेद प्रकाश


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