देवता॥ विषय॥ समाधान

        समाज विभिन्नता से भरा हुआ हैं। उसका कारण है प्रकृति की भिन्नता। प्रकृति की भिन्नता में ही उसकी समानता है, उसका न्याय है। समय, काल, परिस्थिति, दूरी, पारिस्थितिकी आदि के कारण असमान होना। प्रत्येक वस्तु, प्राणी या मनुष्य कभी भी एक पारिस्थितिकी में एक समय पर नही हो सकते- जैसे दूरी, कोण एक होगे तो समय बदल जाता है। इसी कारण से प्रकृति की भिन्नता और नवीनता बरकरार रहती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति की मौलिकता और कार्य असमान है। प्रत्येक का स्वभाव अलग है, प्रत्येक का अस्तित्व अलग है।



         चेतन मन- जब हम कोई कार्य सक्रिय अवस्था में रहकर करते है तब उसे हम चेतन मन कहते हैं।  हमारा माइंड उस समय पूरी तरह एक्टिव होता है।चेतन मन को हम एक्टिव माइंड भी कह सकते हैं। जब हम कोई कार्य को पहली बार सीखते या करने की कोशिश करते है तो उस समय हमारा मन पूरी तरह चेतन अवस्था में होता है या पूरी तरह एक्टिव होता है। हमारा पूरा ध्यान उस कार्य के प्रति हो जाता है। यही चेतन मन हैं।


        अचेतन मन- यह मन का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है जिसके कार्य के बारे में व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती। यह मन की स्वस्थ एवं अस्वस्थ क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। इसका बोध व्यक्ति को आने वाले सपनो से हो सकता हैं।


        अवचेतन मन – जब हम कोई कार्य को बिना डर या झिझक के कर लेते हैं या करते हैं जिसमें किसी प्रकार का कोई दबाव या झिझक नहीं होता है यही अवचेतन मन होता है। उदाहरण के तौर पर जब आप गाड़ी चलाना सीख जाते है तो बिना डर, भय के कोई भी रास्ते में चला लेते हैं उस समय कोई झिझक नहीं होती हैं यही अवचेतन मन हैं।


        मनुष्य के अलावा प्रकृति ने पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, और पदार्थ के गुण-धर्म निर्धारित किये है, कहने का तात्पर्य है- सिखा कर भेजा है। मेमोरी लगभग भर कर भेजी है। जिसके कारण उनकी दिशा और दशा निश्चित है। जैसे कि पौधों को एक स्थान पर रह कर अपने को बढ़ा करना, फल-फूल पत्तियों का निर्माण और उनसे मुक्ति करते रहना, अपने को नवीन या नयेपन से सजाये रखना जिससे उनका सौन्दर्य और अस्तित्व प्रकृति में बना रहे। इसी प्रकार लगभग पशुओं का कार्य भी सुनिश्चित है। क्योकि उनके अन्दर यह संचालक कार्ड या मेमोरी जो लगी है वह लगभग पहले से ही प्रकृति ने भर कर भेजी है। उसमे थोड़ा-बहुत ग्रहण करने व सीखने की क्षमता है या स्पेस होता है। परन्तु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसकी मेमोरी कार्ड या संचालक कार्ड प्रकृति ने पूरी खाली कर के भेज दिया है। मनुष्य जिस काल-परिस्थिति में जीता है या जो घटनायें उसके जीवन से गुजरती हैं वही वह अपनी मेमोरी में भरता है, ग्रहण करता है, सीखता है और सुरक्षित करता है। बार-बार जब एक ही घटना, विचार, या दृश्य उसके चेतन मस्तिष्क से गुजरते है तो वह अचेतन मस्तिष्क मे चले जाते है और उसकी मेरोरी या संचालक कार्ड का भरना प्रारम्भ हो जाता है। चेतन मस्तिष्क से मनुष्य ग्रहण करता है और सीखता है और वर्तमान के साथ अपना मूल्यांकन करता हैं। वह उस पर विचार और चिंतन मंथन करता है। सही और गलत का मूल्यांकन स्वयं करने में सक्षम होता है। परन्तु जब बार-बार वही चीज उससे हो कर गुजरती है तो वह अचेतन मस्तिष्क मे चला जाता है जो आदत या हमारा स्वभाव बन जाता है और हम उसके गुलाम होते चले जाते है। जिसके कारण हमारा अस्तित्व, हमारा वजूद उसी में दिखाई देता हैं। जिसकी रक्षा और जिसे पाने या सही सिद्ध करने के लिए हम व्याकुल हो जाते है उसके खो जाने का डर हम सीख जाते है। उसी के अनुसार हम अपना मूल्यांकन करते हैं और समाज में इस मूल्यांकन को तलाशते हैं। उसी में हम सही-गलत को परिभाषित करते हैं। उसे ही स्वीकार करते हैं, अन्तःस्वीकृति प्रदान करते हैं। व्यक्ति क्योंकि, अगर उसी परिस्थिति में अभी भी रह रहा होता है या उसके सामने किसी भी माध्यम से वह घटनाएं या विचार अभी भी आ रहे होते है, तो वह उन्हें ग्रहण करने या समझने में अपने आप को सहज महसूस करता है और आनन्द के साथ उसमें अपना अस्तित्व महसूस करता है। अपनी सुरक्षा महसूस करता हैं। डर समाप्त करता हैं। और ठेकेदारों द्वारा अपनी दुकाने चलाने के लिए यह बाजार कुछ ज्यादा ही गर्म रहता हैं। उसी समाज और धार्मिक संगठन के लोग उसी विचारधारा को उनके सामने लाते है और उन्हें अपना गुलाम बना लेते है, या कहें कि समाज, समूह या संगठन में वह अपने को सुरक्षित महसूस करने लगता है, अचेतन में सुरक्षित विचारधारा के कारण। उन्ही घटनाओं को वह जाने अनजाने तलाशता है। इसी भ्रम में रहना उसकी नियति बन जाती है, जो मानवता का और स्वयं का सबसे बड़ा शत्रु है। अपनी दुकान चलाने, राजनीतिक पद-प्रतिष्ठा पाने के लिए, संपत्ति के लिए, और मजे कि बात यह है कि उन्ही का समाज या संगठन ही उनका सबसे बड़ शोषण करता है, हक को छीनने वाला है। इसी मानव मानसिकता का ब्रेनवॉश कर, उसकी मानसिकता को गुलाम बना कर एक भयंकर विनाशकारी खेल खेला जा रहा है। वहीं हम अपनी सुरक्षा और मोक्ष तक के रास्ते तलाशते रहते है, एक वही मात्र जन्नत का रास्ता है और उनकी दुकानें चलती रहती है। यह खेल सदियों से चला आ रहा है। इससे बचने का एक ही उपाय है कि दूसरों को भी जाने, उन्हे भी महत्व दे और अपने आप के स्वयं के अस्तित्व को भी पहचाने। समय, काल, परिस्थिति को जाने और अपने को उस समय, काल, परिस्थिति के अनुसार बदलें। नवीनता को स्वीकारें और मिटाने वाले बटन को सदैव सक्रिय रखे। शब्दों के खेल को पहचानें। इसे साध्य की कसौटी पर मत तौले। शब्दों को केवल साधन मात्र ही समझे। किसी घटना या विचार को इतना महत्व न दे कि हम उसी के गुलाम बन जाये।



किसी एक परिस्थिती के लिए एक विषय या कुरीति समाज में व्याप्त हो जाती है। जिसके कारण समाज दूषित या भ्रष्ट हो जाता है। समाज में असमानता का बोलबाला हो जाता है। जिसके निदान के लिए कहीं से एक रास्ता निकलता है, और जो रास्ता निकलता है उस विषय के निदाने के लिए, उसके कुछ सिद्वान्त होते है वही समाज में प्रसारित किया जाता है। हमारी अभिव्यक्ति के कई माध्यम है जैसे बोलकर, लिखकर, चित्र बनाकर मुर्ति बनाकर आदि। जिसे हम समय-समय पर महान ग्रन्थ या मुर्ति के रूप में देवता, महान पुरूष, ईश्वर, मसीहा, खुदा आदि मान लेते है, उनका सम्मान करते है और करना भी चाहिए। जिसमें उस परिस्थिती के निदान के मूलमंत्र समाहित होते है, समाधान निहित होता है। परन्तु प्रकृति के नियमानुसार आज की परिस्थिति अलग है उसका निदान भी अलग ही होगा और यह अलग निदान ही वर्तमान की नवीनता है, विकास का आधार है और सबका इसी मे अस्तित्व है। इसी कारण जिस किसी क्षेत्र में, देश में, समाज में जो समकालीन विकृतियां आयी, उसके निदान के लिए एक विचारधारा ने जन्म लिया और वह कुरीति समाप्त हुई। कुरीति के समाप्त होने के साथ-साथ विचार धारा भी कुन्द होती चली जाती हैं। फिर एक नयी परिस्थिती का जन्म होता है। नये विषय का जन्म होता है। नये सिद्वान्त का जन्म होता है। नये देवता का जन्म होता है। नये समाधान का जन्म होता है। प्रकृति की नवीन का जन्म होता है। प्रकृति की नियति का जन्म होता है। जैसे आज हम कानून बना कर करते है। लेकिन जब हम एक परिस्थिती से उपजी विचारधारा को आज भी अपने जीवन में अपना लेते है बिना सोचे समझे, जिसे समाज के ठेकेदारों द्वारा धर्म, संप्रदाय, मजहब, जाति आदि का नाम देकर, मोक्ष या जन्नत का रास्ता बताकर। सुरक्षा का डर दिखा कर भ्रमित किया जाता है, अपनी दुकान चलाने के लिए। जिसका कारण वह समाज कट्टरता और जड़ता की और चला जाता है जिस के कारण विनाश सुनिश्चित होता है। शब्द द्वैतवाद पर आधारित है यह दोमुंही तलवार है इसके समझ और प्रयोग ही निश्चित करते हैं कि विकास होगा या विनाश । लेकिन जहाँ शब्दों का बाजरीकरण हो जाये। पद , प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, व्यापार, संपत्ति को अकूत अर्जित करने की होड़ लगी हो निहित चन्द व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए, तो विनाश होना सुनिश्चित है। क्योंकि असुरक्षा की भावना, डर का खौफ पैदा करने के लिए वर्तमान में मिथक या घटनायें आसानी से मिल जाते हैं। हमारा मस्तिष्क भी चेतन और अचेतन में होता है। जब कोई भी विचारधारा, दृश्य या घटना आदि बार-बार हमारे से होकर गुजरती है तो, चेतन से अचेतन मस्तिष्क मे चली जाती है। वही हमारा स्वभाव बन जाता है उसके हम आदी हो जाते है उसे ही हम सत्य मान बैठते है। उसी को समझने-समझाने और सही सिद्ध करने की कोशिश करते है क्याकि यह हमारी जड़ प्रकृति बन चुकी होती है। जिसे चेतन मस्तिष्क मे लाने में कठिनाई महसूस करते हैं, जिसे कारण हम अद्यतन या अपडेट नही हो पाते, गुलाम बनकर रह जाते है जो प्रकृति के विनाश का मार्ग प्रशस्त्र करता है। हमारी वर्तमान परिस्थितियों की उपयोगिता को सोचने की क्षमता समाप्त हो जाती है और हम पुरानी विचारधारा के या आउटडेटेड विचारधारा के गुलाम बन जाते है। जिसके कारण समाज को तो अहित होता है, परन्तु संगठनों और ठेकेदारों की दुकाने खूब चलती है। डर पैदा करना इनका सबसे बड़ा अस्त्र होता है। हम जड़ हो जाते है, चेतना हमारी गुलाम हो जाती है। अपनी चेतना को, अपने अस्तित्व को समझने के बजाये हम संगठनो के अस्तित्व पर अपना अस्तित्व निहित कर लेते है। जो बहुत भयावह है। चेतन मस्तिष्क से अचेतन मस्तिष्क को अपडेट करते रहना चाहिए जिससे नवीनता बनी रहेगी जड़ता दूर रहेगी और प्रकृति के साथ तलमेल बना रहेगा, बस यही जीवन है , यही विकास है, सही सभ्यता है। यही प्रकृति है, यही निरंतरता है, यही राग है, यही संगीत है - - - -


वेद प्रकाश


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