अपने राजनीतिक निहित स्वार्थ के लिए समाज का ध्रुवीकरण

    उत्तर प्रदेश सरकार ने दिसम्बर 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर व राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर विरोधी आंदोलन में हुई हिंसा से सार्वजनिक एवं निजी सम्पत्ति को हुए नुकसान की भरपाई हेतु आरोपिओं को सूचनाएं भेजी हैं जिसे मुख्य मंत्री ने अपनी सरकार के तीन वर्ष पूरा होने पर एक उपलब्धि के रूप में भी गिनाया है। करीब दो सौ लोगों से सरकार दो करोड़ रुपए से ऊपर नुकसान की भरपाई के रूप में वसूलना चाहती है।

 

       इस वर्ष जारी किए गए ’उत्तर प्रदेश सार्वजनिक एवं निजी सम्पत्ति के नुकसान हेतु भरपाई 2020’ अध्यादेश की मंशा के अनुसार सरकार ने उन सभी लोगों जिन्होंने प्रदर्शन के दौरान नुकसान किया अथवा उसके लिए उकसाया के खिलाफ प्रथम सूचना आख्या दर्ज की है।

 

       ’जिन्होंने नुकसान किया वे भरपाई करें’ सिद्धांत वैसे तो सुनने में ठीक लगता है, लेकिन सवाल यह उठता है कि अभी तो सिर्फ प्राथमिकी दर्ज हुई, मुकदमा चला भी नहीं, जुर्म साबित हुआ नहीं और भरपाई की वसूली शुरू हो गई है। अध्यादेश के तहत ’दावा अधिकरण’ को सिर्फ शिकायतों के आधार पर विरोध प्रदर्शनों या दंगों के दौरान हुए नुकसान के आंकलन करने का अधिकार है। प्राथमिकी में जिनका नाम दर्ज है क्या वे वाकई में हिंसा के दौरान नुकसान करने के दोषी हैं यह तो कोई सक्षम न्यायालय ही तय करेगा। किंतु अभी आरोपियों का जुर्म साबित भी नहीं हुआ है और स्थानीय प्रशासन ने दबाव बना कर उनसे वसूली चालू भी कर दी है। बुलंदशहर में लोगों ने पूरी राशि रु. छह लाख अदा कर दी है, फिरोजाबाद में रु. 45 लाख में से रु. 4 लाख दे दिए गए हैं, कानपुर में 15 आरोपियों ने रु. 2.02 लाख दिए हैं और अन्य 21 आरोपियों को रु. 1,46,370 अदा करने को कहा गया है। इसी तरह मुजफ्फरनगर, सम्भल व गोरखपुर के प्रशासन आरोपियों से नुकसान की भरपाई हेतु विभिन्न राशियां जमा कराने की अपेक्षा कर रहे हैं। लखनऊ में प्रशासन ने तय राशि नियत तिथि तक न जमा करा पाने की स्थिति में, जुर्माने स्वरूप, अदा की जाने वाली राशि को 10 प्रतिशत बढ़ाने की सूचना भी दी है। राशि अदा न कर पाने की स्थिति में जेल से लेकर सम्पत्ति तक कुर्क होने का खतरा है। इस तरह के हथकंडे अपना कर सरकार सुनिश्चित करना चाहती है कि कोई भी सरकार के विरोध में धरना प्रदर्शन करने की हिम्मत न करे, जो कि उसके संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

 

       इस बात के प्रमाण हैं कि पुलिस व हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ताओं ने 19 दिसम्बर, 2019 को मुजफ्फरनगर में खासकर मुस्लिमों के घरों, एक बच्चों के छात्रावास व मस्जिद में तोड़-फोड़ की है। इन लोगों के खिलाफ प्राथमिकी क्यों नहीं दर्ज हुईं और इनसे नुकसान की भरपाई क्यों नहीं वसूली जा रही है? फिर जिन लोगों की जानें गोली लगने से गईं, जो काफी सम्भावना है कि पुलिस ने चलाईं थीं, उनके परिवारों को हुए नुकसान की भरपाई कौन करेगा?

 

       समाजवादी पार्टी के एक सांसद ने तो मानव संसाधन मंत्री से संसद में पूछा कि क्या जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में हुए रु. 2.66 करोड़ के नुकसान की भरपाई दिल्ली पुलिस से उसी तर्ज पर की जाएगी जैसे कि उ.प्र. सरकार कर रही है?

 

       उ.प्र. के मुख्य मंत्री जिस नैतिकता के धरातल पर वसूली की बात कर रहे हैं उसकी नींव बहुत कमजोर है क्योंकि हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ताओं ने अपनी राजनीति को बढ़ाने के लिए हमेशा हिंसा का इस्तेमाल किया है। जिस घटना से हिन्दुत्व की राजनीति का उभार भारत में हुआ, यानी बाबरी मस्जिद ध्वंस, उसी घटना की वजह से आतंकवाद भारत में आया। 6 दिसम्बर, 1992 के पहले हिंसा की घटनाएं कभी-कभी होती थीं। किंतु बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद उसकी प्रतिक्रिया में मुम्बई में पहली बार श्रृंखलाबद्ध बम धमाके हुए और फिर उनकी एक कतार लग गई। 2001 में अमरीका के न्यू याॅर्क में दो गगन चुम्बी अट्टालिकाओं पर हुए हमले के बाद हमने इन्हें आतंकवादी घटनाएं कहना शुरू किया। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बिना न्यौते के जाॅर्ज बुश के ’आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ में शामिल हो गए। भारत में घटित आतंकवादी घटनाओं के बाद गिरफ्तार किए गए कई मुस्लिम नवजवानों से पूछ-ताछ में उन्होंने बताया कि बाबरी मस्जिद ध्वंस की प्रतिक्रिया, उनके अतिवादी संगठनों में शामिल होने की प्रमुख वजह थी।

 

       इस देश में सुरक्षा के माहौल में हमारे आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में शामिल होने के बाद काफी गुणात्मक परिवर्तन आए। आधुनिक हथियार, तकनीकी, प्रशिक्षण को सुरक्षा की रणनीति में शामिल किया गया। अमरीका व इजराइल के साथ तालमेल बैठा कर हमने उनसे सीखा कि आतंकवाद से अपने को कैसे सुरक्षित रखा जा सकता है। स्थानीय स्तर पर कार्यालयों व आवासों या सरकारी-गैर सरकारी परिसरों के बाहर सुरक्षा कर्मी दिखाई पड़ने लगे व एक्स-रे मशीनों से साथ लाए सामानों की जांच होने लगी। जाहिर है कि इस सबमें काफी पैसा खर्च हुआ।

 

       ’जिन्होंने नुकसान किया वे भरपाई करें’ सिद्धांत के अनुसार क्या बाबरी मस्जिद के ध्वंस में शामिल संगठनों - भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, हिन्दू महासभा, शिव सेना, इत्यादि के कार्यकर्ताओं से भारत को आतंकवाद से सुरक्षित करने में जो भी पैसा खर्च हुआ है वह नहीं वसूला जाना चाहिए?

 

       यहां तो हम उपर्युक्त संगठनों द्वारा पहुंचाई गई उस गम्भीर क्षति की बात ही नहीं कर रहे जो आर्थिक मापदण्डों में नहीं मापी जा सकती जैसे महात्मा गांधी की हत्या, प्रोफेसर गुरु दास अग्रवाल, जो स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के नाम से भी जाने जाते थे, को गंगा के संरक्षण हेतु किए गए 112 दिनों के उपवास के बाद 2018 में उन्हें मरने देना, 2002 में गुजरात में साम्प्रदायिक हिंसा होने देना, विभिन्न भीड़ द्वारा किसी को पीट-पीट कर मार देने की घटनाएं होने देना, दिन दहाड़े बुद्धिजीवियों की गोली मार कर हत्याएं होने देना, आदि। किसी अन्य समूह ने इस प्रकार योजनाबद्ध ढंग से देश की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दशा को इस प्रकार क्षति पहुंचा कर समाज का माहौल खराब नहीं किया जैसा कि हिन्दुत्ववादी कार्यकर्ताओं ने। इससे हमारी छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी खराब हुई है।

 

       आम लोगों के जीवन को छूने वाले मौलिक मुद्दों जैसे गरीब व अमीर के बीच बढ़ती खाई को पाटने की कोशिश करना, गरीबी उन्मूलन, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना, भ्रष्टाचार रोकना - जो कि भाजपा के तमाम दावों के बावजूद कोई कम नहीं हुआ है, शायद बढ़ा ही है, को नजरअंदाज करके भाजपा ने विवादास्पद मुद्दों को उठा कर नागरिकों के दिमागों में भय व असुरक्षा भरी है। अपने राजनीतिक निहित स्वार्थ के लिए समाज का ध्रुवीकरण, देश के आम इंसान जिसने उन्हें चुन कर सत्तारूढ़ किया के हितों पर भारी पड़ता है।

 

       इस देश को भौतिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक जितना नुकसान भाजपा ने पहुंचाया है अब उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं बनता।


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