कथा लिखूँ या व्यथा लिखूँ।
सोच रहा हूँ दिनों -दिनों से ,
कथा लिखूँ या व्यथा लिखूँ।
धर्म, पंथ, मजहब को जानूँ,
या पथ का राही बन जाऊँ।
उलझ गया फिर सुलझ गया
यह उलझन नही सुलझ पाई ।
पहले भी बाजार थे, बिकते थे,
अब भी बाजार है, बिकते है !
वह राजतंत्र था, यह प्रजातन्त्र है,
तन्त्र तन्त्र का खेल हो रहा,
न राज रहा, न प्रजा रही ।
खेल समझ मे आता है
जब खेल खेल कर देखो ।
खेला ,समझा ,समझ आ गया,
यह समझ शाम की नींद बन गई
सुबह शाम और प्रकृति नियति,
मानव है मानव क्या?
सोच रहा हूँ दिनों दिनों से,
कथा लिखूँ या व्यथा लिखूँ।
वेद प्रकाश
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