कोरोना वायरस तालाबंदी में छिपे हैं एक ज्यादा समतामूलक, न्यायपूर्ण व पर्यावरण पक्षीय समाज के बीज

       कोरोना वायरस के खतरे के कारण जो अचानक तालाबंदी हुई है उससे बहुत से लोगों को असुविधा का सामना करना पड़ा है और हमारे रहन-सहन में न चाहते हुए भी बड़े परिवर्तन आ गए हैं। इन परिवर्तनों में से कुछ को तालाबंदी के बाद भी समाज, अर्थव्यवस्था व पर्यावरण के हित में जारी रखने पर विचार करना चाहिए।

       आधुनिक अर्थव्यवस्था में बहुत सारा यातायात, दोनों लम्बी दूरी वाला तथा एक ही शहर में घर से कार्यालय व वापस, अनावश्यक होता है। हमें इस पर विचार करना चाहिए कि कौन कौन से काम घर से ही किए जा सकते हैं ताकि अनावश्यक यात्रा न की जाए, उदाहरण के लिए सूचना प्रौद्योगिकी, संचार माध्यम, आॅनलाइन मार्केटिंग, शिक्षण, कसंलटेंसी ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें ऐसा सम्भव है। यदि गांधी दर्शन के मुताबिक स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करना प्राथमिकता हो तो लोगों को रोजगार अपने घर के समीप ही मिलना चाहिए। हमें शहर-गांव के बीच बढ़ते अंतर को भी कम करने पर विचार करना चाहिए। यह घोषित सरकारी नीति है कि लोगों को कृषि क्षेत्र के निकाल निर्माण या सेवा क्षेत्र में लाया जाए। किंतु भारत जैसे देश में आज भी कृषि क्षेत्र ही अधिकतम लोगों की आजीविका का स्रोत है। समस्या कृषि में सम्मानजनक आय का न होना है जिसका प्रमाण किसानों की आत्महत्याएं हैं। सरकार का प्रयास यह होना चाहिए कि कृषि क्षेत्र में लोगों को सम्माजनक आजीविका के अवसर मिलें। कृषि से सम्बंधित सारे उद्योग ग्रामीण इलाकों में ही लगने चाहिए ताकि लोगों को रोजगार के लिए शहर की ओर मुख न करना पड़े। लोगों को कृषि क्षेत्र से निकाल निर्माण या सेवा क्षेत्र में ले जाने की नीति, जो यूरोप व अमरीका के लिए सफल रही होगी, यदि भारत में आगे बढ़ाई गई तो बेरोजगारी का संकट और बढ़ेगा। लम्बी दूरी और स्थानीय यातायात कम होगा तो सीधे जीवाश्म ईंधन की बचत होगी और प्रदूषण कम होगा जो वांछनीय है।

       गांधी ने कहा था कि यातायात मनुष्य की आवश्यकता है लेकिन यातायात की रफ्तार नहीं। ऐसे समय में जब हमारी जिंदगी ठहर गई है तो हमें सोचना चाहिए कि हमें क्यों तेज यातायात की जरूरत है। यदि हम जिंदगी की रफ्तार घटा लें तो तेज यातायात की जरूरत नहीं महसूस होगी। जाहिर है इसके लिए हमें अपनी यात्राओं का ठीक से नियोजन करना होगा। कोरोना वायरस खतरे के पहले भी हमारे बीच ऐसे लोग थे जिन्होंने समझदारी से हवाई यात्रा न करने का निर्णय लिया हुआ था जिसमें सबसे प्रमुख नाम है स्वीडन की जलवायु परिवर्तन पर मुहिम चलाने वाली 16 वर्षीय छात्रा ग्रेटा थूनबर्ग का। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर के प्रोफेसर गुरु दास अग्रवाल, जिन्होंने 2018 में गंगा के संरक्षण हेतु अनशन करते हुए 112वें दिन दम तोड़ दिया, कभी भी रेल में वातानुकूलित दर्जे से नहीं चलते थे।

       अब प्रत्येक दिन दुकानें कुछ घंटों के लिए ही खुल रही हैं जिसकी वजह से लोग अपना जीवन चलाने के लिए बहुत जरूरी चीजें ही खरीद रहे हैं। गांधी ने कहा था कि यदि हम अपनी जरूरत से ज्यादा चीजों का संग्रह करते हैं तो वह चोरी मानी जाएगी। दुकानदार भी सिर्फ मुनाफा कमाने की फिक्र में नहीं हैं। वे भी कोशिश कर रहे हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की जरूरतें पूरी हो जाएं। कई व्यापारी अपना मुनाफा छोड़ने को तैयार हैं क्योंकि उन्हें लगता है इस समय मानवता की सेवा जरूरी है। यदि लोगों के अंदर से मुनाफा कमाने की प्रवृति खत्म हो जाए और प्रत्येक मनुष्य की जरूरत पूरी करने का भाव जाग जाए जो असल में सेवा का काम है तो यह दुनिया कितनी मानवीय हो जाएगी। हां यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी व्यापार में जो लगे हैं अनके परिवारों की रोजी रोटी चलती रहे।

       इस समय शराब व तम्बाकू या नशीले पदार्थों पर प्रतिबंध लगा हुआ है जो तालाबंदी के बाद भी लगा ही रहे तो बेहतर होगा।

       लोगों को यह बात भी समझ में आ रही है कि पैसा ही सब कुछ नहीं है। आपके पास पैसा हो भी लेकिन आप उस पैसे से कोई समान न खरीद पाएं तो उस पैसे का क्या उपयोग है? जिन परिवारों से लोग आजीविका कमाने दूर चले गए थे उन्हें कहा जा रहा है कि वापस लौट आएं क्योंकि उनका परिवार के बीच रहना पैसा कमाने से ज्यादा जरूरी है। इसलिए हमने देखा कि तालाबंदी के बाद लाखों मजदूर व उनके परिवार पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े जिनमें से कुछ को सैकड़ों तो कुछ को हजार किलामीटर से भी ज्यादा का सफर तय करना पड़ा है।

       उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में तो लोगों ने पुलिस का मानवीय चेहरा नहीं देखा था। पुलिस लाठियां भांजने या अपराधियों को मुठभेड़ में मारने के बजाए जरूरतमंदों को और पैदल अपने अपने घरों को लौटने वालों को खाना खिला रही है यह सुखद आश्चर्य की बात है। जेलों में भी भीड़ कम करने की बात हो रही है। एक बेहतर समाज में कम से कम लोग ही जेल में होने चाहिए। बल्कि जेल तो होने ही नहीं चाहिए, सुधार गृह होने चाहिए। मृत्यु दंड की प्रथा समाप्त करने पर भी विचार करना चाहिए जो कई देशों ने बंद कर दी है।

       राजस्थान, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश व असम की सरकारों ने अपने राज्यों में निजी चिकित्सा संस्थानों के सरकारीकरण पर विचार किया है जो दिखाता है कि संकट के समय में निजी चिकित्सीय संस्थान विश्वसनीय नहीं माने जा रहे हैं। इसका मतलब हमें चिकित्सा क्षेत्र में निजीकरण की नीति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल ने दो अलग अलग फैसलों में यह कहा है कि सरकारी वेतन पाने वालों को अपने बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालयों में पढ़ाना चाहिए व उन्हें अपना व अपने परिवार के सदस्यों का इलाज सरकारी अस्पताल में ही कराना चाहिए ताकि जब सरकारी विद्यालय-चिकित्सालय की गुणवत्ता सुधरेगी तो इसका लाभ सामान्य नागरिक को भी मिलेगा। यदि आज सारे चिकित्सा व शिक्षा संस्थान सरकार के पास होते तो सरकार को कोरोना संकट से निपटने में कितनी सहूलियत होती।

       सरकार ने निर्णय लिया है कि कक्षा आठ तक बच्चों को बिना परीक्षा लिए ही उत्तीर्ण किया जाएगा। असल में मनमोहन सिंह सरकार ने कक्षा आठ तक कोई परीक्षा न लेने की नीति बनाई थी जिसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने पलट दिया था। देखा जाए तो शिक्षा और परीक्षा में कोई सम्बंध ही नहीं है। परीक्षा तो तब लेने की जरूरत पड़ती है जब आपको ज्यादा लोगों में से कुछ का चयन करना हो। यदि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य सीखना-सिखाना है तो विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक परीक्षा प्रणाली को अलविदा कहना चाहिए ताकि सीखने वालों के बीच में कोई प्रतिस्पर्धा की भावना न हो और छात्रों को परीक्षा में सफल होने के लिए अनैतिक तरीकों का इस्तेमाल न करना पड़े। पढ़ाने वाले शिक्षक द्वारा सिर्फ इस बात का मूल्यांकन होना चाहिए कि छात्र सीख रहा है अथवा नहीं और यदि नहीं सीख रहा तो शिक्षक को और प्रसास करना पड़ेगा। जब कोई छात्र कोई विषय सीख ले तो इसके लिए शिक्षक का प्रमाण पत्र काफी होना चाहिए।

       गरीबों की चिंता पहली बार सरकार के केन्द्र में है। उत्तर प्रदेश में मुख्य मंत्री कह रहे हैं कि कोई भूखा न रहे व कोई सड़क पर न सोए। असल में किसी लोकतंत्र में सरकार को यह बहुत पहले ही सुनिश्चित करना चाहिए था कि प्रत्येक इंसान सम्मानजनक ढंग से जी सके। चलिए यदि अब सरकार को यह समझ में आया है तो कम से कम तालाबंदी के बाद भी उसकी यह सोच बनी रहे ऐसी हम उम्मीद करते हैं।

       शादी और मृत्यु पश्चात क्रिया कर्म बहुत साधारण ढंग से आयोजित किए जा रहे हैं। अपने समाज में ऐसे अवसरों पर अपनी क्षमता से ज्यादा खर्च करने का रिवाज है। यदि हम यह सादगी का पालन बाद में भी करते रहे तो बहुत सारे लोग कर्ज लेने से बचेंगे व भ्रष्टाचार कम होगा।

       सारे धार्मिक स्थल भी बंद हैं और लोग पूजा-प्रार्थना घर से ही कर रहे हैं। बाबा आम्टे द्वारा नागपुर के पास स्थापित आनंदवन में कोई सार्वजनिक धार्मिक स्थल नहीं है। लोग पूजा-प्रार्थन घर में ही करते हैं। यह प्रथा बनी रहे तो अच्छा है और सारे धार्मिक स्थल शिक्षा केन्द्रों, चिकित्सा केन्द्रों, पुस्तकालयों अथवा सामुदायिक रसोई, जैसे गुरुद्वारों में लंगर चलते हैं, में तब्दील कर दिए जाने चाहिए। बल्कि किसी भी किस्म के सार्वजनिक धार्मिक आयोजन पर रोक लगनी चाहिए।

       प्रधान मंत्री व सांसदों ने अपने वेतन में कटौती का फैसला लिया है। यह स्वागत योग्य है क्योंकि धीरे धीरे इस देश में गरीब-अमीर का फर्क बढ़ता जा रहा है। अच्छा होगा कि हम डाॅ. राम मनोहर लोहिया के सिद्धांत कि गरीब-अमीर की आय के बीच का फर्क दस गुणा से ज्यादा का नहीं होना चाहिए को अब लागू करने की नीति बना लें।

       सोनिया गांधी ने ठीक ही कहा है कि सरकारी विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए। यदि सरकार अच्छा काम कर रही है तो लोगों को मालूम होता ही है। किसी भी अच्छी चीज को प्रचार की कोई जरूरत नहीं होती है। यह खर्च अनावश्यक ही नहीं अनैतिक भी है। इसी तरह जन प्रतिनिधियों की सुरक्षा पर होने वाले खर्च पर भी रोक लगनी चाहिए। यदि कोई जन प्रतिनिधि लोकप्रिय है तो उसे किसी से क्यों डरना चाहिए? उसका जन समर्थन ही उसकी सुरक्षा है। रही बात प्रतिद्वंदियों की तो प्रतिद्वंदी तो हरेक क्षेत्र में होते हैं तो सिर्फ राजनेताओं को ही सुरक्षा क्यों? बल्कि ’अति महत्वपूर्ण व्यक्ति’ जैसी श्रेणी समाप्त होनी चाहिए।

       इस संकट की घड़ी में कई लोगों के अंदर की मानवता जगी है। लोग एक दूसरे की मदद कर रहे हैं। ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि लोगों को खाली समय में सोचने का समय मिला है और वे सामाजिक दूरी, जो असल में भौतिक दूरी है, बना कर रखने, मुंह पर मास्क लगाने या बार-बार हाथ साफ करने जैसे निर्देशों का उल्लंघन कर भी खतरा उठा कर दूसरों की मदद के लिए सड़कों पर निकल रहे हैं। इस समय सबकी प्राथमिकता हो गई है कि कोई भूखा न रहे। लोगों को यह समझ में आ रहा है कि इंसान के रूप में तो हम सब बराबर ही हैं और जिंदा रहने का हक सबका बराबर का है। हम उम्मीद करते हैं कि हमारे जाति, वर्ग, धर्म, लिंग विभाजित समाज में कोरोना वायरस तालाबंदी खत्म होेने के बाद भी बराबरी व बंधुत्व की यह भावना बरकरार रहेगी।


 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पेंशनरों की विशाल सभा

विश्व रजक महासंघ का आयोजन

जातीय गणना के आंकड़े जारी