राम आस्था या राजनीति ( भूमि पूजन पर विशेष )

“तुलसी भरोसे राम के, निर्भय होके सोय,

        अनहोनी होनी नहीं, होनी हो सो होय “

 

500 वर्ष बाद रामलला के मंदिर को अपना स्थान अपना सम्मान  मिल गया !! जिनकी छत्रछाया में सृष्टि पलती है, उनको कई बरस तिरपाल में काटने पड़े.. अजब विडंबना है। 

इस प्रकरण को 4 अध्याय में बाँट कर समझा मैंने.....

सामाजिक (१)

देखा जाये तो हर धर्म के इष्ट ने साधारण मनुष्यों की तरह जीवन जिया, असाधारण कष्ट सहे, ताकि मानव जाति का उत्थान हो सके.... श्री राम ने १४ वर्ष वनवास काटा, श्री कृष्ण कारावास में जन्मे, यीशु मसीह सूली पर चढ़े, पैग़म्बर मोहम्मद ने भूखे प्यासे कई दिन कष्ट सहे, गौतम बुद्ध ने राजपाट त्यागा...... सिर्फ ये सिखाने के लिये कि वे मानव जाति की पीड़ा हरना चाहते हैं, इसलिये हम में से एक बनकर हमारे लिये ही जन्मे.... कि हमको मुक्ति दिला सकें, पाप से, कष्ट से.

 

   ये कोई साधारण मंदिर नहीं, ये कोई हिंदू मुसलमान का झगड़ा नहीं, किसी विवाद का अंत करके किसी की हार जीत का विषय नहीं......ये प्रकृति का न्याय है । जब मुगल, अंग्रेज या अन्य विदेशी शासक यहाँ नहीं आये थे, जब कोई और धर्म नहीं था , तब भी यह मंदिर था । चाहे कोई इसको जन्मस्थान ना भी माने, चाहे कोई राम को भी ना माने, धर्म को भी ना माने, तो भी। यही सत्य है कि यहाँ एक मंदिर था जो एक प्राचीन सांस्कृतिक धरोरहर थी हमारी... पूरे देश की ।। 

 लुटेरे शासक आये और कई मंदिरों के साथ इस मंदिर को भी तोड़कर इसकी नींव पर मस्जिद बनाई। इतनी ज़मीन थी तब भी, और आज भी इतने धर्मस्थल बन चुके हैं हमारे देश में, पर दूसरों के धर्म स्थल को विध्वंस कर, उनकी आस्था कुचल कर उसपर ही अपना धर्मस्थल खड़ा करने के पीछे क्या मानसिकता हो सकती है भला???? कौन सा इष्ट ऐसे प्रसन्न होगा???

मानो आप किसी को शरण दें और वो आपके ही घर पर कब्ज़ा कर ले...

 

  कभी कभी संतान की  भूल  पर माता पिता क्षमा माँग लेते हैं, वैसे ही यदि भूतकाल में हमारे पूर्वजों से भूल हुई है तो उसको स्वीकार कर सुधारने मे ही बड़प्पन है । हिटलर के यहूदियों के नरसंहार पर इसाई आज तक ग्लानि महसूस करते हैं कि उनके धर्म का नाम खराब किया एक इसाई ने, अश्वेतों के साथ गोरों द्वारा हुये नस्लभेद का सबसे अधिक विरोध गोरों ने ही किया, हिंदू धर्म मे जाति और धर्म के नाम पर जो कुरीतियाँ व्याप्त थीं, उनको स्वयं हिंदुओं ने शिक्षा और संविधान की मदद से दूर किया......तो फिर मुग़ल, मंगोल, तुर्क, अफगानी,अरब शासकों ने जो दूसरे देशों में लूटपाट की , इस्लाम के नाम पर नरसंहार किये, दूसरों के धार्मिक स्थलों को क्षति पहुँचाई, उनका विरोध क्यों नहीं करते मुसलमान??? ऐसे लोगों को क्यों शह मिलती है जो धर्म की छवि बिगाड़ते हैं, अपनी अज्ञानता के कारण !!!!!

  इस देश की मिट्टी ने लुटेरे, क्रूर शासकों को भी अपनाया, उनकी बनाई इमारतों को सम्मान दिया और उनके शासन से मुक्त होने के बाद भी सहेजा । हम आज भी मुग़लों के बनाये ताज महल पर गर्व करते हैं, स्वतंत्रता दिवस पर सबसे पहले भारत के प्रधान मंत्री लाल क़िले पे तिरंगा फहराते हैं, अंग्रेज़ों के बनाये भवन में ही हमारे लोकतंत्र का मंदिर है...... तो फिर देश की अस्मिता से जुड़े किसी भी प्रतीक से किसी को क्यों आपत्ति???? 

 

  हर वो व्यक्ति जो स्वयं को भारतीय कहता है, अपने संवैधानिक अधिकारों की बात करता है, इस देश पर बराबर का हक़ समझता  है उसको स्वागत करना चाहिये, कि एक प्राचीन धरोहर, जिसे विदेशी शासकों ने नष्ट कर दिया था , उसका सम्मान वापस मिल गया, धर्म और राजनीति से ऊपर उठ कर !!  आपको भाजपा से आपत्ति हो सकती है, धर्म से, भगवान से, पर देशवासियों के सम्मान से तो नहीं ना?? देश तो सबका है ना?

हर धर्म को सम्मान मिलता है यहाँ, तो देना भी आना चाहिये।

ऐतिहासिक (२)

  भूमिपूजन पर ताली बजाने से पहले इसके वास्तविक कर्णधारों को भी याद करें....

 

 * मंदिर के अस्तित्व की लड़ाई का मुद्दा सबसे पहले 1983 में कांग्रेस विधायक एवं मंत्री स्व. दाउ दयाल खन्ना ने उठाया... ना विहिप, ना संघ 

* दिगंबर अखाड़ा ने ‘ जन्मभूमि मुक्ति अभियान समिति’ का संयोजक, दाउ दयाल जी को ही बनाया ।

*1984 में दाउ दयाल खन्ना ने,महंत अवैद्धनाथ,स्वामी परमहंस और अशोक सिंघल जी के साथ तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारीजी से मिल के ये मुद्दा उठाया परंतु 84,में इंदिराजी की मृत्यु के कारण इस आंदोलन को स्थगित कर दिया गया ।

*1986 में तत्कालीन प्रधान मंत्री स्व. राजीव गाँधी जी ने जन्मभूमि का ताला खुलवाया और मंदिर का शिलान्यास करवाया । उस समय दूरदर्शन पर रामानंद सागर की ‘ रामायण’ बहुत प्रसिद्ध हुई थी और एक भव्य समारोह में उसके कलाकारों को राजीव जी ने सम्मानित भी किया था ।

कांग्रेस ने इसको आस्था का मुद्दा माना और राजनीति से नहीं जोड़ा

*1989 में भाजपा ने इसको चुनावी मुद्दा बना लिया और जैसे जैसे ये आंदोलन हिंसक होता गया, कांग्रेस ने इससे किनारा कर लिया , शायद अपने वोट बैंक की वजह से !

*1992 में तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र दिया कि उनकी सरकार, भूमि पर कोई नया निर्माण नहीं होने देगी

 2002 में भाजपा ने अपने चुनावी संकल्प पत्र से मंदिर मुद्दा हटा दिया और अटलजी ने न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया क्योंकि दोनो पक्षों में कोई सहमति न बन सकी... 

   अब ये सोचने वाली बात है कि किसने धार्मिक आस्था का सम्मान किया, किसने धर्म का राजनीतिकरण किया, कौन हितैषी है, कौन स्वार्थी, किसके भड़काने पर मुसलमान उत्तेजित हुए, किसके स्वार्थ को साधने के लिये कारसेवकों की जानें गईं.... *सरयू तट पर राम की पैड़ी का प्रथम जीर्णोद्धार कांग्रेस सरकार के मुख्य मंत्री स्व. वीर बहादुर सिंह ने करवाया था तथा अंतर्राष्ट्रीय रामायण मेले की शुरुआत की थी, जिसमें नेपाल, इंडोनीशिया, वियतनाम, श्रीलंका जैसे वो सभी देश हिस्सा लेते थे जहाँ रामायण प्रचलित है।

*हनुमान गढ़ी की बात करें तो , इसका निर्माण नवाब सिराजुद्दौला ने करवाया था ।

1855 में कुछ मुसलमानों ने हनुमान गढ़ी पर हमला बोला तो तत्कालीन नवाब वाजिद अली शाह ने फौज भेजकर उन सबको मार के मंदिर की रक्षा की ... सुनने में अजीब लगे शायद ....

राजनीतिक(३)

* ये सरकार द्वारा प्रायोजित धार्मिक कार्यक्रम के स्थान पर यदि एक राष्ट्रिय पर्व के रूप में, सभी धर्म समुदायों की भागीदारी के साथ मनाया जाता तो और अच्छा होता ।

* जिन लोगों ने इस आंदोलन की शुरुआत की उनको कोई श्रेय नहीं दिया गया , ना ही भाजपा के उन कर्णधारों को मंच पर स्थान दिया गया जिन्होंने कई दशक संघर्ष कर के पार्टी को इस मुकाम तक पहुँचाया ...... शायद नियति का खेल ही है कि जिसने दूसरों का पत्ता काटा , कोरोना ने उसका ...

* ये प्रभु की महिमा ही है कि बहुत से राजनेता जो अपने वोट बैंक को नाराज़ करने के डर से राम मंदिर मुद्दे से किनारा करते घूमते थे, उन्होंने भी “ ट्वीट” कर के बधाई दी और प्रभु श्रीराम के गुणों का बखान किया 

ये समझने की आवश्यकता है कि प्रभु श्रीराम किसी व्यक्ति या पार्टी विशेष के नहीं, सबके हैं....... और इनकी शरण में आकर ही उद्धार होगा 

* लोग कितनी भी नफरत फैलायें परंतु गाँधी जी का नाम अच्छे काम के वक्त, ज़ुबान पर आ ही जाता है

प्रधान मंत्री जी ने संबोधन में कहा कि महात्मा गाँधी श्री राम के उपासक थे, हम सबको भी अहिंसावाद का अनुसरण करना चाहिये

* अब श्री राम के साथ विकास का नाम जोड़ दिया गया है..... आशा है अब सरकार इसको गम्भीरता से लेगी और भगवान राम का नाम बदनाम नहीं होने पायेगा 

* सबसे अहम बात - अभी ना नक्शा पास हुआ, ना मंदिर की नींव खुदी, न्यायालय ने पक्ष में निर्णय दे दिया, केंद्र और प्रदेश में भाजपा सरकार है, समय भी है...... फिर ऐसी भी क्या जल्दी थी भूमि पूजन की? ?? ऐसे आपातकाल में जब महामारी फैल रही है, सरकार बेबस है, हजारों लोगों की जान जोखिम में डालना...... क्या उचित है???? बड़े वी आई पी लोग तो सोशल डिस्टेंसिंग रख सकते हैं, पर उनकी सेवा में लगे हज़ारो सुरक्षा कर्मी, पुजारी, कर्मचारी, और आम जनता का क्या???

* वैसे कोरोनाकाल में एक बात पर ध्यान गया मेरा, पी.एम ने मास्क लगाकर संदेश तो दिया परंतु दो बार मंदिर परिसर में हाथ धोये, बिना साबुन के, सिर्फ ३ सेकेण्ड

आध्यात्मिक(४)

* राम नाम का नारा लगाना , मंदिर बनाना सहज और सरल है, पर मर्यादा पुरुषोत्म के चरित्र का अनुसरण कितने लोग कर सकते हैं?

* राजा सबका होता है, वह धर्म, संप्रदाय, जाति, धनवान , निर्धन में भेद नहीं करता | कह देने से राम राज्य नहीं आ जाता.......

*राम राज्य में सबको समान अधिकार है,न्याय पाने, राजा से अपना विरोध/ शंका जताने का सबको अधिकार है

* प्रजा की सुरक्षा राजा का प्रथम कर्तव्य है

*शत्रु का भाई होने के बावजूद, श्री राम ने विभीषण को शरण दी..... ऐसा विशाल ह्रदय होना चाहिये राजा का।

अब देखना है कि इस कसौटी पर कौन कितना खरा उतरता है ...??

* माँ सीता का उदाहरण देकर पग पग पर स्त्री की अग्निपरीक्षा लेने या उसका परित्याग करने वाले स्वयं कभी राम बन पायोंगे??

अपनी पत्नी के आत्मसम्मान की रक्षा के लिये जो वन में कोसों भटके और उनको रावण से बचा के लाये, सीताजी के समाधि लेने के पश्चात् सारा जीवन उनके वियोग में काटा....... कौन करता है आज के युग में???

* हर स्त्री राम जैसे पति की कामना करती है, परंतु सीता का सतीत्व नहीं देखतीं....... एक कोमल राजकुमारी, महल छोड़कर पति के साथ वन में रही और उसके राजधर्म के मान के लिये कष्ट सहे, कितनी पत्नियाँ ये समर्पण का भाव रखती हैं पति और ससुराल के प्रति ??

* सौतेली माँ की ज़िद पर बिना प्रश्न किये प्रभु सहर्ष वनवास को गये, अपने पिता को धर्म संकट से बचाया ,और १४ वर्ष बाद भी राजमहल ना जाकर सीधे माता कैकयी के पास गये ताकि उनको ग्लानि न हो । आज कितनी संताने माता पिता के प्रति ये समर्पण का भाव रखते हैं???? अब तो बच्चे माँ बाप से अपने अधिकारों की बात करते हैं, फर्ज़ भले ना निभायें ....

* राजगद्दी मिलने के बाद भी भरत कभी उसपर नहीं बैठे और बड़े भाई की खड़ाऊँ रख राजपाट चलाया, उनके इंतज़ार में । लक्ष्मण महल का सुख छोड़कर बड़े भाई की सेवा हेतु वनवास को गये । भाई बहनों में ऐसा त्याग कम ही देखने को मिलता है आज के युग में तो माता पिता के जीवित रहते, उनकी ही सम्पत्ति का बँटवारा कर डालते हैं बच्चे . रामायण को कोई सच माने या कथा, ये जीवन के हर पहलू, हर रिश्ते को स्पर्श करती है ..मंदिर का संघर्ष समाप्त हुआ और अब दायित्व अपने भीतर मर्यादा पुरुषोत्म श्री राम के अंश को खोजना और इस संघर्ष को सफल बनाना है.......भाजपा जो भी कुछ आज है, वो इस मुद्दे की वजह से ।३० साल बाद न्यायालय के निर्णय के अनुसार ही मंदिर बनना था तो धार्मिक उन्माद भड़का के, नफरत फैलाने की क्या आवश्यकता थी??? नाहक इतनी जानें गईं।

इतने बरसों में केंद्र और प्रदेश में कई बार भाजपा का सरकार रही, परंतु राम की नगरी का अपेक्षित विकास नहीं हुआ, उसपर तो कोई विवाद नहीं था, फिर ???? क्या इनको विश्वास नहीं था कि फैसला पक्ष में ही आयेगा??

अब तो मैं उत्साहित हूँ कि जल्द ही चीन से कैलाश मानसरोवर भी मिल जाये, यशस्वी प्रधान मंत्री की अगुवाई में........ मरने से पहले वहाँ के दर्शन हो जायें मुझे बस......

कई बरसों से अयोध्या में लोहे के संकरे जिंगले के बीच से, दूर तिरपाल की छाँव में प्रभु के दर्शन करती आ रही हूँ..... आशा है शीघ्र भव्य मंदिर में विराजमान होंगे रामलला...... अपेक्षित अयोध्या नगरी का विकास होगा और उनके आशीर्वाद से देश का भला होगा!

अब भाजपा शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार , सुरक्षा जैसे ज्वलंत मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करेगी , धर्म की राजनीति से ऊपर उठकर !

 

पापा से बचपन से ये पंक्तियाँ सुनती आ रही हूँ.....

“ होईहे सोई जो राम रचि राखा, को करि तरक बढ़ावै साखा...”

 

और जीवन का यही अटल सत्य है, होगा वही, जो ईश्वर चाहेंगे, चाहे किसी रूप में पूजो उन्हें।


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