कहां हैं इस देश के बाबा
आज जब करोना की महाप्रलय आई है तब बजाए इन स्वयं भू भगवानों से यह प्रश्न करने के कि आखिर इस मुसीबत को उनकी दिव्यदृष्टि पहले से क्यों नहीं देख पाई और उन्होंने क्यों भक्तों को समय रहते आगाह नहीं किया , वे इन बाबाओं की भक्ति को और मजबूती के साथ पकड़े हुए हैं। चलिए छोड़ते हैं उनकी पूर्वानुमान की क्षमता को, अब जब मुसीबत आ ही गई है लोग उनसे ये अपेक्षा तो रखते ही हैं कि वे इस मुश्किल घड़ी में उनके साथ खड़े होंगे। पर कहां है देश के हजारों लाखों साधू संत जो अन्यथा हर जगह नजर आते हैं (अपवाद स्वरूप एक दो छोड़ कर जैसे राधा स्वामी आश्रम ने covid अस्पताल की व्यवस्था की है)। यह ठीक है कि कुछ मठों ने बड़ी राशि का दान प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री राहत कोष में किया है, पर इस बार को समझना होगा कि ये पैसा आश्रमों को खुद दान में प्राप्त पैसा है। सिर्फ पैसा का दान ही कोई मदद नहीं दे सकता क्योंकि सरकार के पास पैसे की कमी नहीं है बल्कि कमी उसकी व्यवस्था और नियत की है। सच्ची सेवा तो बीमारों को दवा , ऑक्सीजन , एंबुलेंस , अस्पतालों में बेड दिलवाने के रूप में है जिसके लिए जमीन पर काम करने वाले लोग चाहिए। इसका उदाहरण हम दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ( DGPC) द्वारा संचालित या राधास्वामी आश्रम के मुफ्त अस्पताल के रूप में देख सकते हैं जहां लोग पैसे के साथ सेवा भी दे रहे हैं सरकारी और निजी अस्पतालों के चक्कर काट कर परेशान हाल लोगों के लिए ये वरदान बन कर आया है। भारत में हजारों धार्मिक संस्थाएं रजिस्टर्ड होंगी और इससे भी बड़ी संख्या में बिना रजिस्ट्रेशन के चलने वाली संस्था होंगी। रजिस्टर्ड ट्रस्ट को अपनी आय का 85% जरूर लोक कल्याण पर खर्च करना चाहिए। हम शायद कभी नहीं जान पाएंगे कि वे कितना खर्च कर रहे हैं क्योंकि धार्मिक संस्थाएं - मंदिर , चर्च , मस्जिद, गुरुद्वारे सूचना के अधिकार में अंतर्गत नही आते । हर धर्म मानवता की सेवा को प्रमुखता देता है , हर धर्म के उपदेशक यही उपदेश देते नजर आते हैं । मगर उपदेश तो शब्दों की बाजीगरी है। चरित्र का असली परीक्षण तो कर्म है जो उनके उपदेशों के साथ जाता नही दिखाई देता। इस मुसीबत की घड़ी में लोग दूसरे लोगों की मदद करते तो दिख जायेंगे मगर उनके परमपूज्यनी अपने अपने स्वर्गों में सुरक्षित बैठ कर लोगों को धैर्य रखने का ज्ञान दे रहे हैं । ऐसा नहीं कि इनके पास संसाधनों की कमी या शिष्यों की कमी है। ऐसा भी नहीं कि वे सामाजिक कामों में भाग नहीं लेते । धार्मिक आयोजनों में भंडारे चलाने हों तो ये बढ़चढ़ कर भाग लेते हैं पर क्या कभी आपने इन्हें रक्तदान शिविर मे इनको रक्त दान करते पाया है या अस्पतालों में असाध्य रोगियों को भर्ती करने या उनका इलाज कराने में इनको मदद करते देखा है ? जगत माया का उपदेश देने वाले लोग दूसरे की जान बचाने में अपनी जान का दांव लगाने का साहस करते नज़र नहीं आते हैं। वहीं इनसे इतर गुरुद्वारे आज तन मन धन से मानवता की सेवा करने में लगे हैं आज वो केवल भोजन के लंगर ही नही चला रहे हैं बल्कि लोगों को अस्पताल , दवाइयां , ऑक्सीजन जैसी जीवन बचाने की सारी जरूरी चीजों की मदद भी उपलब्ध करा रहे हैं। सिख भारत की कुल आबादी के दो प्रतिशत से भी कम हैं। दूसरी ओर भारत के दो बड़े धार्मिक समुदाय हिंदू ( लगभग 80%) और मुसलमान (लगभग 15%) जिनके बड़ी संख्या में धार्मिक संस्थाएं हैं आज की महामारी में उनके काम न के बराबर दिखते हैं। जबकि इनके बाबाओं और मौलवियों को मानने वालों की बड़ी फौज है। अगर अपने सिख भाईयों की तरह ये सब भी उपदेश और तकरीरों के बजाए सेवा करने में जुट जाते तो महामारी से परेशान जनता की बहुत बड़ी मदद हो जाती। सिर्फ इतना ही नहीं कि यह उदासीनता केवल स्वास्थ सेवा को लेकर ही है। भारतीय संस्कृति की बात बात पर दुहाई देने वाले तमाम लोग तब कहां गायब हो जाते हैं जब गंगा जी के संरक्षण के लिए हरिद्वार में स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी ( प्रो जी डी अग्रवाल ) अनशन कर रहे थे। गंगा जी न केवल भारत की अस्मिता का प्रतीक हैं बल्कि हिन्दू आस्था से भी गहरे से जुड़ी हैं। पर स्वामी जी के समर्थन में न तो इन तथाकथित बाबाओं में कोई आगे आया न ही साधु संत समाज से ही किसी का साथ मिला जबकि स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी का आश्रम मातृ सदन धार्मिक नगरी हरिद्वार में ही स्थित है। आखिर स्वामी जी ने 112 दिनों के अनशन के बाद 2018 बलिदान दे दिया। इसको सिर्फ उदासीनता ही कहना उचित नहीं होगा यह तो परले दर्जे की निष्ठुरता और निर्ममता है। धर्म के संगठनों का अपने सामाजिक दायित्वों से इस तरह मुख मोड़ने की शायद ही दुनिया में मिसाल मिले। इन सबके बाद भी अगर हम विश्व गुरु बनने का दावा करें तो इससे बड़ा मजाक क्या होगा।
प्रवीण श्रीवास्तव
(लखनऊ के एक सामाजिक कार्यकर्ता )
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